श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्वाद्शः सर्गः
महाराज दशरथ की चिंता,
विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न मांगने के लिए अनुरोध करना
यदि भरत को भी प्रिय हो,
श्रीराम का वन में जाना
मृत देह का मुझको उनसे, दाह
संस्कार नहीं करवाना
था मेरा दुर्भाग्य तू आयी, तेरे
कारण अपयश होगा
मर जाने पर मेरे सुख से,
पुत्र सहित राज तू करना
रथों, हाथियों पर चलते थे,
पैदल कैसे राम चलेंगे
तिक्त, कसैले, कटु फलों का,
कैसे वे आहार करेंगे
बहुमूल्य वस्त्र थे जिनके,
सुख से जो रहते आये
वनवासी हो रहेंगे कैसे, राम
वस्त्र गेरुए पहने
किसकी हुई प्रेरणा तुझको,
ऐसे वचन निकाले मुख से
धिक्कार है स्त्रियों को,
किन्तु नहीं ऐसी हैं सब वे
पिता त्याग देंगे पुत्रों
को, संकट में हों यदि श्रीराम
पति त्याग देंगी महिलाएँ,
जगत करे विपरीत व्यवहार
देवकुमार समान राम को, देख
निहाल सदा होता हूँ
मानो पुनः युवा हो गया,
शोभा लख विस्मित होता हूँ
सूर्य बिना संसार रह सके,
वर्षा बिन जीवन बच जाये
राम बिना जीवन न रहेगा, यही
धारणा मन में आये
क्रूर अति व्यवहार है तेरा,
क्यों मुझपर प्रहार कर रही
दांत तेरे क्यों न गिर
जाते, कटु वाणी मुख से निकालती
कैसे दोष देखती उनमें, राम
का सब करते सम्मान
दोषी को ही वन भेजते, कैसे
मान लूँ तेरी बात
तू चाहे डूब ग्लानि में,
विष खाकर या दे दे प्राण
है अहितकर अति कठोर, नहीं मान
सकता यह बात
मीठी बातें करके तूने, छुरे
समान घात किया है
कुल नाशिनी, झूठी है तू, उर
को मेरे भस्म किया है
जीवन नहीं बिना राम के, सुख
फिर कैसे हो सकता
छूता हूँ मैं चरण तेरे, तू
मुझ पर प्रसन्न हो जा
इस प्रकार राजा दशरथ, करते
थे विलाप अनाथ सम
छूना चाहते थे चरणों को,
किन्तु गिर पड़े हो मूर्छित
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि
निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.
महाराज दशरथ की मनोदशा का बहुत हि सुंदर वर्णन ....
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteस्वागत व आभार ज्योति जी
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