Monday, August 3, 2015

कैकेयी का भरत के लिए अभिषेक और राम के लिए चौदह वर्षों का वनवास माँगना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकादश सर्गः

कैकेयी का राजा को प्रतिज्ञा बद्ध करके उन्हें पहले के दिए हुए दो वरों का स्मरण दिलाकर भरत के लिए अभिषेक और राम के लिए चौदह वर्षों का वनवास माँगना

कामदेव के बाणों से हत, दशरथ उसके वशीभूत थे
कैकेयी ने कठोरता से, उनसे वचन कहे थे ये

न तो निन्दित हुई, किसी ने, न ही अपकार किया
चाहूँ मैं पूर्ति जिसकी, एक मनोरथ है मेरा

यदि पूर्ण करना चाहें तो, पहले शपथ आप ले लें
इससे पहले मौन रहूंगी, तभी कहूंगी उसे आपसे

थे अधीन काम के दशरथ, सुन उसकी बात मुस्काए
सिर रखा उसका गोदी में, केशों को पकड़ हाथ से

सौभाग्य पर गर्व तुम्हें है, क्या तुम इससे अनभिज्ञ हो
सिवा राम के कौन है ऐसा, जो तुमसे अधिक प्रिय हो

आराधनीय प्राणों द्वारा भी, अजेय राम की शपथ मुझे
पूर्ण तुम्हारी होगी इच्छा, एक बार बस कहो ! उसे

भद्रे ! केकयराजकुमारी !, वचनों की पूर्ति को आतुर
इच्छा व्यक्त करो तुम अपनी, ह्रदय हुआ जाता व्याकुल

शंका क्यों करती हो मुझपर, नहीं जानती अपने बल को
सत्कर्मों की शपथ खा कहता, प्रिय तुम्हारा सिद्ध शीघ्र हो

स्वार्थ सिद्धि में लगा हुआ था, रानी कैकेयी का मन
भरत के हित पक्षपात था, वश में पा राजा को हर्षित

सोचा उसने सही समय है, अपना हित साधने का अब
राजा से ऐसा बोली वह, कहना जिसका अति दुष्कर

उसका अभिप्राय था भयंकर, निकट आए हुए यम सा
राजन ! ली है शपथ आपने, सुनें उसे तैंतीस देवता

चन्द्र, सूर्य, आकाश, ग्रह, दिशा, जगत, भू, दिवस-रात्रि
गृह देव, गन्धर्व, निशाचर, राक्षस आदि सब बनें साक्षी

महातेजस्वी, सत्य प्रतिज्ञ, धर्म के ज्ञाता, सत्यवादी
महाराज मुझे वचन दे रहे, जिनकी जग में है ख्याति

काम मोहित हो थे उद्यत, वर देने को जो राजा
अपनी मुट्ठी में कर उनको, कर प्रशंसा फिर यह कहा

राजन ! याद करें वह बात, देवासुर संग्राम हो रहा
घायल किया था शत्रु ने, केवल प्राण नहीं हरा था

सारी रात जागकर मैंने, जीवन की रक्षा की थी
दो वरदान दिए आपने, आज उन्हीं को मैं मांगती

एक धरोहर के रूप में, रख छोड़े थे पास आपके
प्राण त्याग दूंगी मैं अपने, यदि उन्हें आप न दें

जैसे मृग जाल में फंसता, बहेलिये की वाणी मात्र से  
कैकेयी के वशीभूत हो, राजा बंधे प्रतिज्ञा में थे

राम के राज्याभिषेक की, जो तैयारी की आपने
पहले वर से यही मांगती, भरत का हो अभिषेक उसी से

तापस के वेश में राम, वन में रहें चौदह वर्षों तक
निष्कंटक युवराज पद यह, पा जायेगा पुत्र भरत

यही कामना है अब मेरी, ऐसा ही प्रबंध करें
राम को वन जाते देखूं, आप सत्यप्रतिज्ञ बनें

सत्य के द्वारा निज शील, कुल, जन्म की रक्षा हो
सत्य परम कल्याण का साधन, लोक या परलोक भी हो

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.



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