श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
दशमः सर्गः
राजा दशरथ का कैकेयी के भवन
में जाना, उसे कोपभवन में स्थित देखकर दुखी होना और उसको अनेक प्रकार से सांत्वना
देना
पापिनी कुब्जा ने रानी को,
उलटी बातें जब समझा दीं
विष में बुझे बाण से बिद्ध,
किन्नरी सी भूमि पर लोटी
निश्चय करके यह उत्तम है, कह
डाला अपना मन्तव्य
मोहित और दुखी कैकेयी,
लम्बी सासें ले सोचे यह
अति प्रसन्न हुई मंथरा,
रानी का यह निश्चय जान
भौहों को टेढ़ा कर अबला, सोयी
धरा पर दीन समान
फेंक दिए सारे आभूषण, शोभा
बने वे भूमि की
जैसे छिटके सुंदर तारे, बनते
हैं शोभा नभ की
मलिन वस्त्र, एक वेणी धर,
कोपभवन में थी दुखिया सी
बलहीन अथवा अचेत हुई,
किन्नरी सम जान पड़ती थी
राजा देकर उधर आज्ञा,
अभिषेक की रामचन्द्र के
यथासमय हों सब उपस्थित, कह,
गये तब रनिवास में
समाचार स्वयं जाकर देंगे,
सभी रानियों को यह विशेष
वे कैसे जानेंगी, सोच यह,
अंतः पुर में किया प्रवेश
सर्वप्रथम प्रवेश किया, कैकेयी
का जो श्रेष्ठ भवन
मानों श्वेत बादलों वाले,
नभ में रवि करे पदार्पण
तोते, मोर, क्रौंच व हंस,
कलरव करते थे चहुँ ओर
चम्पा और अशोक खिले, घोष
वाद्यों का भी मधुर
लताभवन, चित्र मन्दिर थे,
सोने, चाँदी की वेदियाँ
स्वर्ग समान भोज्य पदार्थ
थे, थीं कुब्जा व बौनी दासियाँ
राजा ने उत्तम शैया पर,
कैकेयी को नहीं देखा
भर विषाद तब प्रतिहारी से,
सूने घर का कारण पूछा
रानी कहीं नहीं जाती थी, राजा
की आगमन बेला में
प्रतिहारी थी अति भयभीत,
हाथ जोड़कर कहे शब्द ये
कोपभवन की ओर गयी हैं,
कुपित हुई रानी कैकेयी
राजा सुन यह हुए उदास,
इन्द्रियां भी व्याकुल हो उठीं
कोपभवन में भूमि पर थी, जो
उसके योग्य नहीं था
राजा ने दुःख के कारण,
संतप्त हो उसको देखा
वृद्ध थे राजा तरुणी पत्नी,
प्राणों से बढ़ उसे मानते
पाप नहीं था उनके मन में,
पर पाप रानी के मन में
कटी हुई लता की भांति,
पृथ्वी पर वह पड़ी हुई थी
मानो कोई देवांगना, स्वर्ग
से भूतल पर गिरी थी
ल्क्ष्यभ्रष्ट माया हो
जैसे, बंधी हुई या कोई हिरनी
देवलोक से च्युत अप्सरा,
स्वर्ग भ्रष्ट हो या किन्नरी
बाण बिद्ध हथिनी का जैसे,
गजराज स्पर्श है करता
उसी तरह कामी राजा ने,
कैकेयी का स्पर्श किया
भय समाया था मन में यह,
जाने क्या कहने वाली है
हाथ फेर अंगों पर, पूछा, किसने
यह हालत की है
देवी, क्रोध तुम्हारा मुझ
पर, इस पर तो विश्वास न होता
किसने निंदा की है
तुम्हारी, किसने या तिरस्कार किया
क्या कारण जो लोट रही हो, भूमि
पर मुझे दुःख देने
मेरे चित्त को मथने वाली,
हित तुम्हारा मेरे मन में
मेरे रहते तुम क्यों ऐसे,
भूमि पर शयन करती हो
चित्त तुम्हारा हरा पिशाच
ने, रोग से या पीड़ित हुई हो ?
कुशल वैद्य हैं संतुष्ट
अति, सुखी तुम्हें वे कर देंगे
अथवा कहो, किसका हित चाहो,
सफल मनोरथ सब होंगे
प्रिय रानी, देह न सुखाओ,
किस अवध्य का वध चाहती
प्राणदण्ड पाने योग्य को,
मुक्त कराना या चाहती
किस दरिद्र को धन दे दूँ,
किसको मैं कंगाल बना दूँ
हैं अधीन तुम्हारे हम सब,
जो चाहो पूरा कर दूँ
प्राण भी देने पड़ें मुझे
तो, वही करूंगा जो तुम चाहो
सत्कर्मों की शपथ उठाता, संदेह
को दूर भगा दो
सूर्य चक्र जहाँ तक घूमे,
पृथ्वी है अधिकार में मेरे
द्रविड़, सिन्धु, सौवीर मगध,
काशी कोसल मत्स्य देशों में
भांति-भांति के द्रव्य माँग
लो, धन-धान्य, बकरी भेड़ भी
इतना क्लेश उठाती हो क्यों,
उठो ! उठो ! प्यारी कैकेयी
जैसे सूर्य भगाता कुहरा, भय
तुम्हारा दूर करूंगा
कैकेयी को मिली सांत्वना,
कहने की जगी अब इच्छा
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण
आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में दसवाँ सर्ग पूरा हुआ.
दिनांक 03/08/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
ReplyDeleteचर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
सुन्दर भावानुवाद ..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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