श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पंचमः सर्गः
राजा दशरथ के अनुरोध से वसिष्ठजी का सीता सहित श्रीराम को उपवास व्रत की
दीक्षा देकर आना और राजा को इस समाचार से अवगत कराना; राजा का अंतःपुर में प्रवेश
पुत्र को जब संदेश दे चुके,
मुनि को बुलवाया दशरथ ने
विघ्ननिवारण व्रत दीक्षा, कहा,
राम-सीता को वे दें
वेद वेत्ता मुनि वसिष्ठ, तब
आरूढ़ हुए थे रथ पर
श्रीराम से मिलने तत्क्षण, चले
श्वेत भवन की ओर
तीन ड्योढ़ियों में उसकी, रथ
से ही प्रवेश किया
जहाँ राम आ वेगपूर्वक, हाथ
पकड़कर उन्हें उतारा
प्रिय वचन सुने जब उनके, कह
‘वत्स’ उन्हें पुकारा
वधू सहित वे आज रात्रि, करें
उपवास, आदेश दिया
नहुष ने ययाति का ज्यों, प्रेम से अभिषेक किया
था
कल प्रातः युवराज के पद पर,
अभिषेक तुम्हारा होगा
ऐसा कह उन व्रतधारी ने, कर मंत्रोच्चारण
दी दीक्षा
गये महल से उसके पूर्व, पूजन
किया राम ने उनका
भरा हुआ था नर-नारी से, महल
राम का उस रात्रि
कमल सरोवर सा शोभित था,
कलरव करते ज्यों पक्षी
झुण्ड के झुण्ड मनुष्य भरे
थे, राजमार्ग पर चारों ओर
हर्षध्वनि प्रकट होती थी,
कोलाहल था गर्जन घोर
घर-घर में फहरायीं पताका,
गलियों में छिड़काव किया
शीघ्र ही सूर्योदय हो जाये,
सब करते थे यही कामना
उत्सव था यह अति महान, आनंद
को देने वाला
मुनि बढ़े यह सब देखते, राजा
को सब कह सुनाया
दशरथ ने फिर ली विदा, अंतः
पुर की ओर बढ़े
इन्द्रसदन के सम था सुंदर,
दशरथ उसके भीतर गये
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि
निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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