श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
सप्तमः सर्गः
श्रीराम के अभिषेक का समाचार पाकर खिन्न हुई मंथरा का कैकेयी को उभाड़ना, परन्तु प्रसन्न हुई कैकेयी का उसे पुरस्कार रूप में आभूषण देना और वर मांगने के लिए प्रेरित करना
दासी प्रिय इक कैकेयी की, संग मायके से आई थी
कोई नहीं जानता मंथरा, जन्मी कहाँ, किसकी पुत्री थी
अभिषेक से इक दिन पहले, छत पर वह जा चढ़ी सहज ही
अयोध्या की सड़कों पर देखे, जहाँ-तहाँ बिखरे उत्पल ही
बहुमूल्य ध्वजाएँ फहरें, जल का भी छिड़काव किया
जनवासी भी शोभित होते, उबटन लगा स्नान किया
राम के मोदक, माल्य पाकर, हर्षनाद करते हैं ब्राह्मण
चूने, चन्दन लेप से सजे, देवमन्दिरों के द्वार सब
वाद्यों की ध्वनियाँ होती हैं, हर्षित हैं सभी प्राणी
वेद-पाठ भी गूँज रहा है, गुंजित अश्व-गज की वाणी
अचरज हुआ देखकर उसको, राम की धाय निकट खड़ी थी
हर्ष से उसके नेत्र खिले थे, रेशमी पीत साड़ी धारी थी
पूछा, देख उसे दासी ने, आज सभी सुखी हैं क्योंकर
धन बांटती हैं लोगों को, कौशल्या क्यों हर्षित होकर
कर्म कौन सा करवाएंगे, महाराज दशरथ प्रसन्न हो
हर्ष से फूली नहीं समाती, श्रीराम की धाय भी तो
कुब्जा को उसने बतलाया, महा सम्पत्ति राम पाएंगे
कल पुष्य नक्षत्र में उनका, राजा राज्याभिषेक करेंगे
मन ही मन कुढ़ गयी मंथरा, उतरी गगनचुम्बी प्रासाद से
जल रही थी अति क्रोध से, अनिष्ट नजर आता था इसमें
महल में लेटी कैकेयी से, जाकर उसने कहे वचन ये
उठ ! मूर्ख ! क्या सोयी है, विपत्ति आ पड़ी ऊपर तेरे
फिर भी तुझको बोध नहीं, अपनी इस दुरावस्था का
तेरे प्रियतम अभिनय करते, हैं कारण तेरे अनिष्ट का
अपने में अनुरक्त जानती, सौभाग्य की डींग हांकती
किन्तु हुआ अस्थिर भाग्य, नदी ग्रीष्म में ज्यों सूखती
ऐसे वचन सुने रानी ने, हुई दुखी, पूछा उसने
घटा अमंगल क्या कोई, दुःख छाया मुख पर तेरे
मंथरा अति वाक् पटु थी, खिन्न हुई सुन मधुर वचन ये
उसका हित ही सदा चाहती, कुपित हुई यह प्रकट करे
भाग्य नष्ट होता है तुम्हारा, जिसका नहीं कोई प्रतिकार
कल महाराज अभिषिक्त करेंगे, राम को युवराज के पद पर
दुःख से व्याकुल हुई सुन यह, भय के सागर में डूबी
हित की बात बताने आई, चिंता की अग्नि में जलती
तुम पर कोई दुःख आया हो, मुझको भी उससे दुःख भारी
मेरी भी उसमें उन्नति है, उन्नति यदि होगी तुम्हारी
राजाओं के कुल में जन्मी, महाराज की महारानी हो
नहीं समझ फिर क्यों पा रही, राजधर्मों की उग्रता को
धर्म की बातें राजा करते, किंतु हृदय के शठ व क्रूर
उनके द्वारा ठगी जा रही, शुद्ध भाव से कोसों दूर
व्यर्थ ही यहाँ आया करते हैं, कौशल्या का हित करेंगे
भरत को भेजा मामा के घर, राम का अभिषेक करेंगे
तुमने उनका हित चाहा, शत्रु हैं किन्तु वे तुम्हारे
जैसे कोई सर्प को पाले, वैसे धारा तुमने उन्हें
सुख पाने के योग्य सदा तुम, किन्तु तुम्हें मृत्यु दी ज्यों
मेरी तरफ देखती ऐसे, सुख की बात सुनी हो ज्यों
विस्मय त्याग करो वही तुम, जिससे हित होता हो तुम्हारा
रक्षा करो पुत्र की अपने, मेरा भी तुम बनो सहारा
सुनकर उठी सुंदर मुख वाली, हर्षित हो कैकेयी सहसा
शरद पूर्णिमा के चन्द्र सी, हर्ष से अंतर भरा था उसका
पुरस्कार में दिया आभूषण, उसने कुब्जा को मुस्का कर
अति प्रिय समाचार सुनाया, कह, क्या करूं तेरा हितकर
भरत राम में भेद न जानूँ, मांग ले जो भी वर तू चाहे
अति हर्षित हूँ अमृतसम इस, अभिषेक के समाचार से
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, संघर्ष ही सफलता का सोपान है - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteSUNDRAM MANOHARAM
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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