श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
नवम सर्गः
कुब्जा के कुचक्र से कैकेयी
का कोपभवन में प्रवेश
मंथरा के ऐसा कहने पर,
तमतमाया मुख उसका
लम्बी गर्म श्वास खींचकर, कैकेयी
ने वचन कहा
श्रीराम को वन भेजूंगी,
अभिषेक भरत का ही होगा
सोचो, किस उपाय से आखिर,
पूर्ण अभीष्ट अपना होगा
कैसे मिले राज्य भरत को,
श्रीराम पा सकें उसे ना
पाप का मार्ग दिखाने वाली,
मंथरा ने तब बोल कहा
तुम्हें स्मरण नहीं है
इसका, या तुम मुझसे छिपा रही हो
चर्चा की कई बार तुम्हीं
ने, मुझसे ही सुनना चाहती हो
यही आग्रह यदि तुम्हारा,
सुनो और करो ऐसा ही
कैकेयी उठ गयी पलंग से, कहो
उसे अब तुम शीघ्र ही
पूर्वकाल की बात याद है,
देवासुर संग्राम हुआ था
बने सहाय देवराज की, पति ने
तुमको साथ लिया
दक्षिण में दण्डकारण्य
भीतर, है वैजयन्त एक नगर
मायाओं का जानकार था, शम्बर
नामक एक असुर
ध्वजा में तिमि का चिह्न
था, इंद्र से युद्ध किया उसने
क्षत-विक्षत सोये पुरुषों
को, राक्षस मार डालते जिसमें
महाबाहु राजा दशरथ ने,
असुरों से तब युद्ध किया
असुरों ने
अस्त्रों-शस्त्रों से, तन उनका जर्जर किया
लुप्त सी ही चेतना उनकी,
तुमने उनकी रक्षा की थी
बनी सारथि युद्ध स्थल से,
तुरंत उन्हें हटा ले गयीं
वहाँ भी जब वे हुए थे घायल,
पुनः उन्हें अन्यत्र ले गयी
राजा ने संतुष्ट हो इससे,
दो वर की प्रतिज्ञा की थी
जब इच्छा होगी मेरी तब,
इन्हें माँग लूंगी आपसे
सुनकर हामी भरी उन्होंने,
यह वृत्तांत कहा था तुमने
तब से सदा याद रखती हूँ,
स्नेहवश मैं सदा तुम्हारे
स्वामी को वश में कर सकती,
इन्हीं वरों के प्रभाव से
एक से राज भरत के हेतु,
दूजे से वनवास राम का
चौदह वर्षों में भरत भी, पा
लेंगे स्नेह प्रजावर्ग का
No comments:
Post a Comment