श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः
राजा सुमति से सत्कृत हो एक रात
विशाला में रहकर मुनियों सहित श्रीरामका मिथिलापुरी में पहुंचना और वहाँ सूने
आश्रम के विषय में पूछने पर विश्वामित्र का उनसे अहल्या को शाप प्राप्त होने की
कथा सुनाना
पूछा राजा सुमति ने तब, परस्पर जब हुआ मिलन
देवकुमारों से लगते हैं, ये दो वीर सिंह, सांड समान
चाल-ढाल हाथी, सिंह सम है, नेत्र कमलदल से हैं सुंदर
रूपवान हैं युवा वीर ये, लिए धनुष, तीर, तलवार
किसके पुत्र, किस हित आये हैं, देवलोक से आये लगते
चन्द्र और सूर्य की भांति, इस भूमि को शोभित करते
एक समान दिखाई देते, मनोभाव व बोलचाल में
पैदल चलकर कठिन मार्ग पर, क्यों आये हैं इसे कहें
सुमति का यह वचन सुना तो, विश्वामित्र ने सब बताया
सिद्धाश्रम का घटनाक्रम भी, दैत्यों का वध कह सुनाया
विस्मित हुआ नरेश सुनकर यह, विधिपूर्वक किया सम्मान
रहे रात भर वे सब सुख से, प्रातः काल किया प्रस्थान
साधु, साधु कह उठे महर्षि, मिथिला पहुंच जब देखी शोभा
दिखा पुराना एक आश्रम, बड़ा रमणीय पर सुनसान था
मुनिवर से राम ने पूछा, भगवन ! यह स्थान है कैसा
कोई यहाँ नजर न आता, किसका यह हुआ करता था
श्री राम का प्रश्न सुना जब, कथा सुनाई विश्वामित्र ने
क्रोध से किसने शाप दिया, था किसका यह
पूर्वकाल में
गौतम मुनि का था आश्रम, दिव्य जान पड़ता था तब
अहल्या पत्नी थी उनकी, जिसके संग करते थे तप
एक दिन जब नहीं थे गौतम, इंद्र उस आश्रम में आया
अहल्या से की प्रेम याचना, गौतम मुनि का वेश बनाया
इंद्र को पहचान लिया था, किन्तु अहल्या हुई प्रभावित
इंद्र चाहते हैं मुझको, इस अभिमान से हुई ग्रसित
प्रेम निवेदन किया स्वीकार, हुई कृतार्थ आपसे मिलकर
गौतम मुनि आते ही होंगे, जाएँ यहाँ से हे देवेश्वर !
हँसते हुए इंद्र बोला यह, मैं भी अब संतुष्ट हुआ हूँ
मिलने यहाँ जैसे आया था, उसी तरह अब जाता हूँ
कुटिया से निकले इंद्र तब, गौतम के आने के डर से
वेगपूर्वक फिर लगे भागने, तब वे बड़ी उतावली से
इतने में ही उन्होंने देखा, महामुनि समिधा ले आते
भीगा तन तीर्थ के जल से, उद्दीप्त प्रज्ज्वलित अग्नि से
भय से थर्रा उठे इंद्र तब, मुख पर भी विषाद छा गया
मुनि वेश धारे इंद्र को, देख सदाचारी गौतम ने कहा
मेरा रूप धरा है तूने, अकरणीय यह पाप है किया
इसलिए दंडित करता हूँ, इस क्षण से तू विफल हो गया
भरे रोष में तब गौतम के, वचन निकते ही मुख से
तत्क्ष्ण ही गिर पड़े धरा पर, दोनों अंडकोष इंद्र के
इंद्र को ऐसा शाप दिया फिर, पत्नी को ये वचन कहे
कष्ट उठाती वर्ष हजारों, दुराचारिणी ! तू पड़ी रहे
औरों से अदृश्य रहेगी, हवा पीकर या कर उपवास
जब दशरथ कुमार आयेंगे, तभी मिटेगा तेरा त्रास
लोभ-मोह तेरे छूटेंगे जब, उनका तू आथित्य करेगी,
पूर्व शरीर धारण कर तत्क्ष्ण, हो प्रसन्न मुझ तक पहुंचेगी
महातेजस्वी गौतम मुनि तब, कहकर ऐसा चले गये
सिद्धों व चारणों से सेवित, शिखर हिमालय पर तप करने
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तालीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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