श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
पंचचत्वारिंशः सर्गः
देवताओं और दैत्यों द्वारा क्षीर-समुद्र-मंथन, भगवान रूद्र द्वारा हालाहल विष
का पान, भगवान विष्णु के सहयोग से मन्दराचल का पाताल से उद्धार और उसके द्वारा
मंथन, धन्वन्तरि, अप्सरा, वारुणी, उच्चैःश्रवा, कौस्तुभ तथा अमृत की उत्पत्ति और
देवासुर-संग्राम में दैत्यों का संहार
अग्रगण्य जो देवों में थे, रूद्र देव को कहा हरि ने
प्रथम वस्तु जो प्राप्त हुई, भाग आपका यह विष है
ग्रहण करें इस विष को आप, जान अग्रपूजा अपनी
अन्तर्धान हुए तत्क्ष्ण तब, कहकर ऐसा देव शिरोमणि
देवों का जब भय देखा, सुनी बात श्री हरि की शिव ने
हालाहल घोर विष को तब, धारण किया निज कंठ में
देव-असुर फिर दोनों मिलकर, मंथन करने लगे सिंधु का
उसी समय पर्वत मन्दर ने, पाताल में था प्रवेश किया
देव और गन्धर्व ने मिलकर, की स्तुति मधुसूदन की
देवों के अवलम्ब आप हैं, आप ही हैं जीवों की गति
रक्षा करें आप ही भगवन !, इस पर्वत को आप उठायें
कच्छप रूप धरा हरि ने तब, पीठ पर रखा और सो गये
स्वयं ही फिर शिखर पकड़ कर, मंथन किया संग देवों के
एक हजार वर्ष बीते जब, पुरुष एक प्रकटे सागर से
एक हाथ में दंड लिए थे, दूजे में कमंडल धारे
धन्वन्तरि नाम था उनका, आयुर्वेद के वे ज्ञानी थे
सुंदर काँति युक्त अनेकों, अप्सराएँ फिर प्रकट हुईं
नाम यही अनुकूल था उनका, अप के रस से थीं प्रकटी
साठ करोड़ थीं संख्या में वे, अनगिन थीं सेविकाएँ उनकी
पत्नी रूप से नहीं पा सके, देव या दानव जिन्हें कोई भी
वरुणदेव की पुत्री वारुणी, तब सागर मंथन से प्रकटी
जो सहर्ष उन्हें स्वीकारे, करने लगीं खोज उस नर की
सुरा की अभिमानिनी देवी, असुरों ने नहीं ग्रहण किया
अदिति के पुत्रों ने लेकिन, अनिन्ध्य सुन्दरी को पाया
सुरा रहित होने के कारण, दैत्य असुर तब कहलाये थे
सुरा-सेवन के कारण ही, अदिति पुत्र सुर संज्ञा पाए
हर्ष से उत्फुल्ल हुए देव गण, वारुणी पाकर आनन्दित भी
उत्तम अश्वों में उच्चैःश्रवा, प्रकटे अमृत व कौस्तुभ मणि
अमृत हित फिर युद्ध हुआ था, देवों और असुरों में तब
राक्षसों को साथ कर लिया, महाघोर संग्राम छिड़ा जब
क्षीण हुआ अति वह समूह जब, विष्णु ने फैलाई माया
रूप मोहिनी का धारण कर, अमृत का अपहरण कर लिया
जिन दैत्यों ने युद्ध किया था, अमृत पाने हित विष्णु से
मारे गये सभी वे योद्धा, उस अति घोर महायुद्द में
हुए पराजित सभी दैत्य जब, इंद्र हुए अति प्रसन्न
त्रिलोकी का राज्य पाया, ऋषिगण व सहित चारण
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पैंतालीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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