श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः
पुत्रवध से दुखी दिति का कश्यपजी से इंद्रहन्ता
पुत्र की प्राप्ति के उद्देश्य से तप के लिए आज्ञा लेकर कुश्प्ल्व में तप करना,
इंद्र द्वारा उनकी परिचर्या तथा उन्हें अपवित्र अवस्था में पाकर इंद्र का उनके
गर्भ के सात टुकड़े कर डालना
निज पुत्रों के हत होने पर, दिति को दुःख हुआ भारी
मरीचिनन्दन पति कश्यप के, निकट पहुंच उनसे बोली
महाबली ! आपके पुत्रों ने, मेरे पुत्रों की, की है हत्या
मैं भी वीर पुत्र चाहती, दीर्घकाल कर महा तपस्या
इंद्र का वध करने में जो, सक्षम हो वह महाबली
पुत्र प्रदान करें एक ऐसा, आज्ञा दे दें तप करने की
कश्यप बोले दुखिनी पत्नी को, तपोधने ! ऐसा ही हो
शौचाचार करो तुम पालन, पुत्र तुम्हें ऐसा प्राप्त हो
एक हजार वर्ष तक यदि तुम, पावन होकर रह सकती हो
इंद्र का वध करने में सक्षम, पुत्र प्राप्त कर सकती हो
कहकर ऐसा उसके तन पर, हाथ फिराया मुनि कश्यप ने
हो कल्याण तुम्हारा कहकर, चले गये तपस्या करने
दिति अत्यंत हर्ष में भरकर, कुशप्ल्व नामक वन में आयीं
पुत्र प्राप्ति के हित तब वे, कठिन तपस्या में रत हुईं
सहस्र लोचन इंद्र विनय से, सेवा करने उनकी आये
अग्नि, कुशा, काष्ठ, जल, आदि, मौसी हित लाकर देते
पैर दबाकर थकन मिटाते, अभिलषित वस्तुएं लाते
अन्य आवश्यक सेवाओं से, दिति की परिचर्या करते
एक हजार वर्ष होने में, केवल जब दस वर्ष शेष थे
तब अत्यंत हर्ष में भरकर, दिति ने कहे वचन इंद्र से
बलवानो में श्रेष्ठ वीर हे !, तप पूरा होने है वाला
दस वर्ष ही शेष रहे हैं, भाई तुम्हारा जब जन्मेगा
तुम्हें नष्ट करने वाला जो, पुत्र वीर चाहा था मैंने
उसे शांत कर दूंगी अब मैं, जब उत्सुक होगा तुम्हें जीतने
बैर भाव से रहित उसे मैं, भ्रातृ स्नेह से करूंगी युक्त
उसके साथ प्रेम से रह कर, तुम भोगना विजय का सुख
पुत्र का वर दिया है मुझको, सुरश्रेष्ठ, तुम्हारे पिता ने
ऐसा कहकर हुई अचेत थीं, बैठे आसन पर दिति नींद से
सिर उनका झुक गया था तब, पैरों से लगा था जाकर
पैरों पर केशों को डाला, हँसे इंद्र अपवित्र जानकर
माता दिति के उदर में जाकर, सात भाग कर दिए गर्भ के
रोने लगा जोर से बालक, हुआ विदीर्ण जब वह वज्र से
दिति की निद्रा टूट गयी तब, उठ बैठीं जागकर वे
मत रो, मत रो ! कहा इंद्र ने, टुकड़े लेकिन कर ही डाले
दिति ने कहा, उसे मत मारो, बाहर आये इंद्र तभी
व्रज सहित हाथ जोड़कर, दिति से तब क्षमा मांगी
सिर पैरों से लगा था जाकर, अवस्था को अपवित्र जान
यही छिद्र पाकर मैंने, इंद्र हन्ता को किया विदीर्ण
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