Monday, October 17, 2011

माया



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

माया

अव्यक्त है जिसकी संज्ञा, त्रिगुणात्मक अविद्या, माया
है अनादि परा शक्ति यह, जगत बना है जिससे काया  

न सत् है यह न ही असत् है, न ही यह उभय रूप है
भिन्न अभिन्न न भिन्नाभिन है, अंग सहित न अंग रहित है

अनिर्वचनीय, अद्भुत है यह, ब्रह्म ज्ञान से ही मिट पाती
तीन गुणों से जग को बांधे, शक्ति वह माया कहलाती

रजो गुण

क्रिया धर्म है रजो गुण का, राग-द्वेष उससे होते हैं
सुख-दुःख आदि मनो विकार, राजस गुण से होते हैं

काम, क्रोध, लोभ व दम्भ, असूया, ईर्ष्या व अभिमान
मत्सर भी रजोगुणी है, जीव को हो बन्धन महान

तमो गुण

होता कुछ, दिखाता कुछ है, तमो गुण की यही है चाल
जग का आदि कारण यही है, सत्य ढके आवरण डाल

चाहे हो विद्वान, चतुर भी, भ्रम उसका नहीं जाता
तमोगुण से ग्रस्त हुआ जो, सत्य नहीं समझ पाता

ब्रह्म नहीं है यह मानता, मैं देह हूँ ऐसा निश्चय
संदेहों से घिरा रहे वह, प्रपंच बना लेता आश्रय

जड़ बुद्धि अज्ञानी रहता, निद्रा, आलस उसे घेरता
तमो गुण से युक्त हुआ जो, बन प्रमादी दुःख झेलता

5 comments:

  1. अनिर्वचनीय, अद्भुत है यह, ब्रह्म ज्ञान से ही मिट पाती
    तीन गुणों से जग को बांधे, शक्ति वह माया कहलाती

    माया की विषद व्याख्या!

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  2. होता कुछ, दिखाता कुछ है, तमो गुण की यही है चाल
    जग का आदि कारण यही है, सत्य ढके आवरण डाल
    kitna sara gyaan

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  3. जड़ बुद्धि अज्ञानी रहता, निद्रा, आलस उसे घेरता
    तमो गुण से युक्त हुआ जो, बन प्रमादी दुःख झेलता
    बहुत ही सुंदर शब्दों में लिखी यथार्थ को बताती हुई बेमिसाल रचना /बहुत बधाई आपको /
    मेरे ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद /आशा है आगे भी आपका आशीर्वाद मेरी रचनाओं को मिलता रहेगा /आभार /

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  4. वाह .... तीनों गुणों की माया का विश्लेषण कर दिया ... सुन्दर ...

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  5. अनिर्वचनीय, अद्भुत है यह, ब्रह्म ज्ञान से ही मिट पाती
    तीन गुणों से जग को बांधे, शक्ति वह माया कहलाती....बहुत ही सारगर्भि पंक्तिया !

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