त्र्योदशोऽध्यायः (अंतिम भाग)
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग
कार्य व कारण हैं प्रकृति में, जीवात्मा सुख-दुःख भोगे
संग गुणों का कारण बनता, विभिन्न योनियों को वह धारे
देह में स्थित जो है आत्मा, जान उसे ही तू परमात्मा
साक्षी रूप में वही उपद्रष्टा, सम्मति देने से अनुमन्ता
वही है भर्ता और भोक्ता, महेश्वर भी वही कहाए
शुद्ध सच्चिदानन्द घन है, परमात्मा भी वही कहाये
जो जानता इन दोनों को, वह फिर जन्म नहीं लेता
कोई शुद्ध बुद्धि से जाने, ध्यानयोग से कोई पाता
श्रवण मात्र से भी हे अर्जुन, भवसागर को तर जाते हैं
भिन्न भिन्न मार्ग से जाकर, एक उसी को सब पाते हैं
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से, सारे प्राणी सदा उपजते
स्थावर-जंगम जो भी दीखते, चर-अचर सब इससे होते
नष्ट हो रहे इन भूतों में, परमात्मा को जो भी देखता
सम भाव को प्राप्त हुआ वह, बस यथार्थ में वही देखता
जो सबमें परम को देखे, स्वयं को स्वयं से नष्ट न करता
देख आत्मा को अकर्ता, परमगति को वह है पाता
प्रकृति में सब कार्य हो रहे, विकार ग्रस्त होती है वही
पुरुष सदा एक सा रहता, अकम्पित, निर्लिप्त सदा ही
जैसे लिप्त नहीं होता है, सूक्ष्म अति आकाश किसी में
देह में स्थित होने पर भी, है अलिप्त आत्मा देह से
एक सूर्य प्रकाशित करता, ज्यों सारे जग को हे अर्जुन
एक आत्मा के प्रकाश से, प्रकाशित है यह सारा तन
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस भेद को, जो तत्व से है जानता
मुक्त हुआ वह जड़ प्रकृति से, कर्म उसे फिर नहीं बांधता
मन के ज्ञान-चक्षु खोलती हुईं अनमोल पंक्तियाँ !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनमोल पंक्तियाँ !
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