एकादशोऽध्यायः
मुखों से अग्निलपटें निकलें, हे केशव ! अनंत यशस्वी
सूर्य चन्द्र दो नेत्र तुम्हारे, हो असंख्य भुजा धारी
जल रहा सम्पूर्ण जगत यह, है प्रचंड तेज तुम्हारा
भय से कम्पित हैं लोक सभी, कैसा व्यापक रूप तुम्हारा
देव शरण में हुए आपकी, कुछ प्रवेश करते हैं मुख में
कर जोड़े कर रहे प्रार्थना, सिद्ध महर्षि मग्न स्तुति में
रूद्र, वसु, आदित्य, साध्य गण, यक्ष, असुर गन्धर्व, पितरगण
सिद्ध्देव, अश्विनीकुमार भी, तुम्हें देखते होकर विस्मित
है विकराल रूप आपका, मुखों, उदरों, दाढों वाला
व्याकुल हैं सब लोक देख यह, मैं भी हूँ व्याकुल मन वाला
गगन तक विस्तार तुम्हारा, सर्वव्यापी हे विष्णु ! तुम हो
नेत्र विशाल चमकते अनुपम, हूँ अधीर, व्याकुल लख तुमको
हे देवेश, जगन्निवास, प्रलयाग्नि सम रूप छिपाओ
मोहग्रस्त हुआ मैं जाता, भीषण इन दाढों को हटाओ
भीष्म, द्रोण, कर्ण, राजागण, पुत्रों सहित धृतराष्ट्र के
इक-इक करके चले जा रहे, मुख में इस विकराल आपके
कुछ योद्धा हमारे भी तो, कर रहे प्रवेश उसी में
चूर्ण हुए जाते हैं सब वे, विकट आपके इन दातों में
जैसे नदियाँ मिले सागर में, योद्धा सब जाते हैं मुखों में
हर दिशा से बढ़ते आते, पतिंगों से जलते लपटों में
प्रज्ज्वलित है सारा ब्रह्मांड यह, है प्रखर तेज तुम्हारा
झुलसाती किरणें फैलाते, अद्भुत भीषण ताप तुम्हारा
हे देवेश ! कृपा कर कहिये, कौन आप हैं उग्र रूप धर
नमन ग्रहण कर हो प्रसन्न तुम, नहीं जानता तुम्हें ईश्वर !
केशव बोले, मैं ही काल हूँ, मैं विनाश हेतु आया हूँ
केवल पांडव शेष रहेंगे, अन्यों का अंत लाया हूँ
युद्ध हेतु तत्पर हो जाओ, यश के भागी बनो हे अर्जुन
मेरे द्वारा मारे जा चुके, निमित्त मात्र बनो तुम अर्जुन
बहुत सुन्दर लिखा है भक्ति की धारा बह रही है।
ReplyDeleteसुन्दर दर्शन बहुत ही सार्थक लिखती हैं आप .
ReplyDeleteअक्षय-मन