द्वादशोऽध्यायः
भक्तियोग
जो भक्तजन अति प्रेम से, सगुण रूप में तुमको भजते
और जो केवल निराकार को, परम ब्रह्म मान के भजते
उन दोनों में बोलो केशव, कौन तुम्हें अधिक प्रिय है,
कौन है उत्तम योगवेत्ता, कौन ईश के अधिक निकट है
जिनका मन मुझमें ही लगा है, श्रद्धावान सगुण भक्त जो
अति प्रिय हैं मुझको अर्जुन, मेरा भजन करें सदा जो
किन्तु वश में किया जिन्होंने, मन-इन्द्रियों को बड़े जतन से
नित्य, अचल, निराकार को, एकी भाव से जो हैं भजते
वे सबके है सदा हितैषी, सब में समता भाव है जिनका
वे भी मुझको ही पाते हैं, श्रेष्ठ भाव सदा है उनका
निराकार में श्रम है ज्यादा, देह अभिमान बना रहता है
अव्यक्त का मिलना दुर्लभ, मन में द्वैत बना रहता है
किन्तु हुए जो मेरे परायण, कर्मों को मुझे अर्पण करते
सगुण रूप मुझ परमेश्वर का, भक्तियोग से चिंतन करते
जिनका मुझमें चित्त लगा है, वे मेरे प्रेमी कहलाते
मृत्युरूप इस भवसागर से, वे शीघ्र ही तर जाते
मन को लगा सदा मुझी में, बुद्धि भी मुझमें कर अर्पण
इसमें कोई संशय नहीं है, तू मुझमें ही रहेगा अर्जुन
यदि न लगता मन तेरा तो, योग धर्म का कर अभ्यास
अथवा कर्म सभी कर मुझ हित, मुझको ही तू होगा प्राप्त
यदि न सम्भव हो ऐसा तो, कर्मों के फल को दे त्याग
ज्ञान श्रेष्ठ है अभ्यास से, ज्ञान से श्रेष्ठ मान तू ध्यान
कर्मों के फल का जो त्याग है, उसे ध्यान से अच्छा मान
त्यागी पाता परम शांति है, त्यागी को तू उत्तम जान
sundar prastuti.
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर और सरल अनुवाद कर रही है आप्…………आभार्।
ReplyDeleteजिनका मुझमें चित्त लगा है, वे मेरे प्रेमी कहलाते
ReplyDeleteमृत्युरूप इस भवसागर से, वे शीघ्र ही तर जाते
sunder gyan deti hui rachna .
abhar.
जब भी आपके ब्लॉग पर आता हूँ शांति का बोध होता है ....
ReplyDeleteकई जिस्म और एक आह!!!
मन को शान्त करती सुन्दर रचना..
ReplyDeleteकुछ समय से व्यस्तताओं के कारण ब्लॉग जगत से दूर रहा..आज पिछली कडी भी पढीं...बहुत अच्छा लगा..आभार.
ReplyDeleteबहुत सुंदर सत्संग ....
ReplyDeleteआभार
भक्ति का सार!
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