श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः
सीता और लक्ष्मण सहित राम का रात्रि में तमसा तट पर निवास, माता-पिता और
अयोध्या के लिए चिंता तथा पुरवासियों को सोते छोड़कर वन की ओर जाना
तमसा का सुंदर तट देख, लख
सीता को कहा भाई से
पहली रात्रि प्राप्त हुई
है, जब से हम निकले हैं घर से
उत्सुक नहीं नगर हित होना,
देखो इस सूने वन को
पशु-पक्षी निज स्थान पर,
बोल रहे अपनी बोली को
गूँज रहा है वन यह सारा,
मानो देख हमें ये रोते
शोक मनाएगी अयोध्या, संशय
नहीं मुझे है इसमें
मुझमें, तुममें, महाराज
में, भरत और शत्रुघ्न में भी
अनुरक्त सद्गुणों के कारण,
कितने ही अयोध्या वासी
पिता और माता के हेतु, शोक
अति होता है मुझको
अश्रु निरंतर बहा रहे हैं, दृष्टि
न खो बैठें वे दोनों
भरत अति हैं धर्मात्मा,
धर्म, अर्थ, काम के ज्ञाता
वे सांत्वना देगें उनको,
अनुकूल वचनों के द्वारा
कोमल अति स्वभाव भरत का, स्मरण
करता बार-बार जब
माता-पिता के लिए मुझे, चिंता
अधिक नहीं होती तब
श्रेष्ठ तुम्हारा है संग आना, क्योंकि यदि न तुम
आते
कोई सहायक मैं ढूँढ़ता, सीता
की रक्षा के लिए
फल-मूल यहाँ मिल सकते,
किन्तु आज जल ही पियूँगा
यही सही जान पड़ता है, फिर
सुमन्त्र से वचन यह कहा
स्वागत व आभार कुलदीप जी !
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