श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः
श्रीराम का पुरवासियों से भरत और महाराज दशरथ के प्रति प्रेम-भाव रखने का
अनुरोध करते हुए लौट जाने के लिए कहना; नगर के वृद्ध ब्राह्मणों का श्रीराम से लौट
चलने के लिए आग्रह करना तथा उन सबके साथ श्रीराम का तमसा तट पर पहुँचना
उधर पराक्रमी श्रीराम ने, वन
की ओर प्रस्थान किया
पीछे चले अयोध्यावासी, उनके प्रति अनुराग था
जिनका
जल्दी लौट के वापस आये,
जिसके प्रति कामना ऐसी
दूर तक न पहुँचाने जाएँ,
ऐसी है मान्यता जग की
कह यह लौटाया राजा को, तब
भी जो थे रथ के पीछे
राम प्रिय थे जिन्हें
चन्द्र से, जन वे नहीं वापस लौटे
प्रजाजनों ने की प्रार्थना,
कहा राम से लौट चलें
पिता के सत्य की रक्षा हित,
किंतु वे बढ़ते ही गये
स्नेह भरी दृष्टि से देखा,
मानो नयनों से पीते हों
निज सन्तान समान प्रिय थे,
प्रेमपूर्वक बोला उनको
है मेरे प्रति जो प्रेम व
आदर, हो वह मेरी ही खातिर
और अधिक ही भरत के हेतु, है
उनका आचरण सुंदर
भरत चरित्र अति हितकारी,
कैकेयी का आनंद बढ़ाते
प्रिय आपका सदा करेंगे,
छोटे हैं पर बड़े ज्ञान में
हैं पराक्रमी पर कोमल भी,
योग्य नरेश आपके होंगे
हर भय का करेंगे निवारण, युक्त
हुए राजोचित गुण से
मुझसे भी बढ़कर योग्य हैं,
इसीलिए युवराज बन रहे
सदा आज्ञा मानें उनकी, मेरा
सुख है सदा इसी में
शोक ग्रस्त न हों राजा, सदा
करें चेष्टा इसकी
रखें याद सदा यह विनती, मेरा
प्रिय करने हेतु ही
दशरथ नंदन श्रीराम ने,
ज्यों-ज्यों दृढ़ता ही दिखाई
उनको ही स्वामी मानें, यह
इच्छा होती प्रबल गयी
दीन हुए से अश्रु बहाते, पीछे-पीछे
चले जा रहे
मानो राम उन्हें खींचते, बाँध
गुणों में लिए जा रहे
उनमें से कई ब्राह्मण थे,
ज्ञान, अवस्था तप में आगे
कांप रहे थे सिर कितनों के,
दूर से ही वे ऐसा बोले
तीव्र गति से चलने वाले,
लौटो अश्वों ! बनो हितैषी
कान तुम्हारे बहुत बड़े हैं,
सुन लो यह याचना हमारी
श्रीराम हैं विशुद्धात्मा,
दृढ़ता से व्रत पालन करते
नगर की ओर इन्हें लौटा लो, वापस
ले आओ वन से
वृद्ध ब्राह्मणों का विलाप सुन,
उतरे राम रथ से नीचे
धीरे-धीरे कदम बढ़ाते, तीनों
पैदल ही अब चलते
वात्सल्य गुण की प्रधानता, दया
भरी हुई दृष्टि में
इसीलिए वे रथ के द्वारा,
उन्हें छोड़ न बढ़ पाए
जाते देख उन्हें वन को, वृद्ध
ब्राह्मण घबरा गये
लौट चलो वापस हे राम !, हो
संतप्त कहा उनसे ये
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