श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्विचत्वारिंशः सर्गः
राजा दशरथ का पृथ्वी पर गिरना, श्रीराम के लिए विलाप करना, कैकेयी को अपने पास
आने से मना करना और उसे त्याग देना, कौसल्या और सेवकों की सहायता से उनका कौसल्या
के भवन में आना और वहाँ भी श्रीराम के लिए दुःख का ही अनुभव करना
श्रेष्ठ वाहनों के चिह्न
दिखते, किंतु राम न पड़े दिखाई
बार-बार लौट कर पीछे, रथ
मार्ग पर दृष्टि लगाई
चंदन से चर्चित जो राम,
उत्तम शय्या पर सोते थे
व्यजन डुलाती थीं
स्त्रियाँ, हो भूषित अलंकारों से
ले आश्रय वृक्ष की जड़ का, निश्चय
ही आज कहीं वे
काठ या पाहन पर सिर रख,
भूमि पर ही शयन करेंगे
फिर अंगों में धूल लपेटे, दीन
की भांति श्वास खींचते
शयन भूमि से उठेंगे ऐसे, हाथी
ज्यों निकट निर्झर के
निश्चय ही वन के वासी,
लोकनाथ उन महाबाहु को
उठकर जाते हुए देखेंगे, अनाथ
की भांति ही उनको
सुख भोगने के योग्य जो, जनक
दुलारी प्रिय सीता
काँटों पर पैर पड़ने से, वन
जाकर पाएगी व्यथा
वन कष्टों से अनभिज्ञ है,
व्याघ्र आदि जन्तु हैं जहाँ
निश्चय ही होगी भयभीत, गर्जन-तर्जन सुनकर उनका
सफल करे कामना अपनी, विधवा
हो राज्य भोगे
बिना राम मैं नहीं बचूँगा,
कैकेयी ही यहाँ रहे
भारी भीड़ से घिर कर राजा,
शोकपूर्ण भवन में आये
कर विलाप उस पुरुष की भांति, मरघट से जो नहाके
आये
देखा उन्होंने पुरी का हर
घर, है सूना, बाजार बंद है
क्लांत, दुखी, दुर्बल लगते
हैं, जो भी लोग नगर में हैं
राजमार्ग भी सूने लगते, देख
नगर की यह अवस्था
जैसे मेघ में सूर्य छिपा
हो, गये महल में चिंतित राजा
श्रीराम के बिना महल वह,
शांत सरोवर सा लगता था
जिसके नाग को गरुड़ ले गये,
राजभवन अति दुखमय था
इस तरह विलाप करके, कहा
द्वारपालों से तब यह
कौसल्या के घर पहुंचा दो,
शांत वहीं होगा यह हृदय
अति विनय से द्वारपाल तब,
कौसल्या के भवन ले गये
वहाँ पलंग पर उन्हें
लिटाया, मन से वे मलिन ही रहे
पुत्रों व पुत्रवधु बिना, चन्द्रहीन आकाश सा
लगता
श्रीहीन भवन में आकर, राजा
का दुख बढ़ता जाता
उठा बाँह एक अपनी तब, उच्च
स्वर में किया विलाप
हा राम ! तुम कब आओगे, हम
दोनों का करते त्याग
जीवित रहेंगे नरश्रेष्ठ जो,
चौदह वर्षों की अवधि तक
पुनः तुम्हें उर से लगाकर,
वे ही सुखी बनेंगे तब
कालरात्रि के समान वह, आधी
रात बीत गयी जब
कौसल्या से कहा राजा ने, दीर्घ
श्वास खींच कर तब
देख नहीं पाता हूँ तुमको,
दृष्टि राम के साथ गयी
स्पर्श करो तन एक बार,
दृष्टि नहीं अब तक लौटी
आ निकट उनके तब बैठीं,
कौसल्या व्यथित अति होकर
करने लगीं विलाप कष्ट से,
व्याकुल था उनका अंतर
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बयालीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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