श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
षट्सप्ततितमः सर्गः
श्रीराम का वैष्णव-धनुष को चढ़ाकर अमोघ बाण के द्वारा परशुराम के तप प्राप्त
पुण्यलोकों का नाश करना तथा परशुराम का महेंद्र पर्वत को लौट जाना
दशरथ नंदन श्रीराम को, पिता के गौरव का था ध्यान
चुप थे वह संकोच के वश ही, किन्तु न रह पाए अब शांत
कहा उन्होंने परशुराम से, सुना है मैंने भी वह कृत्य
पिता के ऋण से उऋण हुए, मारे गये थे जब क्षत्रिय
मैं भी हूँ क्षत्रिय धर्मी, नहीं पराक्रम हीन, असमर्थ
देखें मेरा भी तेज अब, लिया हाथ से शीघ्र धनुष
चढ़ा धनुष तब प्रत्यंचा पर, कुपित हुए ये शब्द कहे
नहीं छोड़ सकता आप पर, प्राण संहारक बाण ये
ब्राह्मण होने के नाते से, पूज्यनीय
हैं आप मेरे
एक दूसरा कारण भी है, नाता है विश्वामित्र से
राम ! यह मेरा विचार है, शक्ति गमन की जो आपकी
अथवा अनुपम पुण्यलोक सम, हर लूँ मैं तप की शक्ति
निष्फल कभी नहीं जा सकता, यह दिव्य वैष्णव बाण
गर्व दमित कर दे शत्रु का, विजय सदा कराए प्राप्त
धनुष बाण धारी राम के, दर्शन हेतु आये देवता
ब्रह्मा जी को आगे करके, एकत्र हुए ऋषि वहाँ
चारण, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, किन्नर, नाग, गन्धर्व भी
वह अद्भुत दृश्य देखने, आ पहुंची थीं अप्सराएँ भी
श्रेष्ठ धनुष जब लिया हाथ, जड़वत् हुए सभी अचरज से
दशरथ नंदन राम को देखा, वीर्य हीन हो परशुराम ने
धीरे-धीरे कहा राम से, पूर्वकाल में कश्यप जी को
पृथ्वी दान में जब दी थी, कहे वचन थे ये मुझको
रहना नहीं चाहिए अब से, इस राज्य में अब आपको
तब से मैं ऐसा करता हूँ, रहता नहीं हूँ यहाँ रात को
गमन शक्ति को नष्ट न करें, इसीलिए हे राघव वीर,
जाऊंगा महेंद्र पर्वत पर, मन समान वेग से शीघ्र
जीता जिन अनुपम लोकों को, मैंने निज तप के बल से
शीघ्र नष्ट कर दें उनको ही, आप इस श्रेष्ठ बाण से
धनुष चढ़ा दिया आपने, इससे निश्चित है यह बात
मधु दैत्य के हन्ता ही हैं, अविनाशी विष्णु भगवान
देख रहे हैं सभी देवता, अनुपम हैं कर्म आपके
कोई नहीं अप सम दूजा, युद्ध में सामना करने
प्रकट हुई मेरी अयोग्यता, है यह लज्जा जनक नहीं
हुआ पराजित हूँ आपसे, नाथ त्रिलोकी के श्री हरि
उत्तम व्रती हे श्रीराम अब, देर करें न छोड़ें बाण
तत्पश्चात प्रस्थान करूंगा, सदा आपका हो कल्याण
छोड़ा बाण जब सुनी बात यह, परशुराम तैयार हुए
दूर हुआ सब अन्धकार तब, देव ऋषि सब हर्षित थे
भूरि-भूरि तब की प्रशंसा, श्रीराम की सबने मिलकर
पूजित हो राम से गये, परशुराम परिक्रमा भी कर
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छिहत्तरवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
स्वागत व आभार शांति जी
ReplyDeleteस्वागत व आभार शांति जी
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