Wednesday, May 20, 2015

राजा जनक का कन्याओं को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदि को विदा करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


विश्वामित्र का अपने आश्रम को प्रस्थान, राजा जनक का कन्याओं को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदि को विदा करना, मार्ग में शुभाशुभ शकुन और परशुरामजी का आगमन

बीती रात जब हुआ सवेरा, विश्वामित्र जो महामुनि थे
दोनों नृपों से ले आज्ञा, उत्तर पर्वत चले गये

दशरथ ने भी अनुमति ली तब, विदेहराज मिथिलानरेश से
शीघ्र हुए तैयार सभी वे, पुरी अयोध्या जाने को थे

राजा जनक ने कन्याओं हित, दिया दहेज, प्रचुरता से धन
 लाखों गौएँ, कई कालीनें, रेशमी और सूती भी वस्त्र

सजे हुए थे गहनों से जो,  घोड़े, रथ, पैदल व हाथी
उत्तम दास-दासियाँ भी दीं, सखियाँ भी पुत्रियों की

स्वर्ण, रजत मुद्राएँ भी दीं, मोती, मूँगे के उपहार
बड़े हर्ष के साथ दिए, वस्तुएं थीं नाना प्रकार

दशरथ की आज्ञा लेकर तब, जनक मिथिला लौट गये
महर्षियों को आगे करके, दशरथ भी प्रस्थित हुए

ऋषि समूह व राम चन्द्र संग, राजा दशरथ जब जाते थे
शब्द भयंकर लगे थे करने, चारों ओर कई पंछी उनके

भूमि पर विचरण करते मृग, दायीं ओर उन्हें कर जाते 
देख उन्हें पूछा दशरथ ने, कारण इसका महामुनि से

अशुभ और शुभ दो प्रकार का, शकुन मुझे कम्पित करता
क्या होगा इसका फल बोलें, मन दुःख में डूबा जाता

राजा का यह वचन सुना तो, मधुर वचन कहे वसिष्ठ ने
पक्षी का स्वर भय दिखलाये, शांत वह होगा, मृग कहते

चिंता मुक्त हो रहें आप यह, अभी कहा था मुनि वसिष्ठ ने
तभी अचानक उठी भयानक, जोरों की आंधी मग में
सारी पृथ्वी को कंपाती, बड़े बड़े वृक्षों को गिराती
सूर्य छिपा अंधकार में, खो सी गयीं दिशाएं भी

ढकी धूल से सारी सेना, मूर्छित सी नजर आती थी
मुनि वसिष्ठ, ऋषि गण व राजा, चेत रहा पुत्रों को ही

उस घन घोर अंधकार में, राजा दशरथ ने यह देखा 
मान मर्दन किया था जिसने, सभी क्षत्रिय राजाओं का

भृगुकुल नन्दन जमदग्निकुमार, परशुराम चले आते थे
बड़ी जटाएं थीं मस्तक पर, अति भयानक वे लगते थे

दुर्जय थे कैलाश समान, कालाग्नि सम थे दुःसह
तेजोमंडल से प्रज्ज्वलित, न देखा जाता उनका मुँह

त्रिपुर विनाशक शिव समान थे, ब्रह्मर्षि आपस में कहते
क्या पुनः संहार करेंगे, पिता के वध से क्रोधित हो ये

पूर्वकाल में ऐसा करके, क्रोध शांत किया इन्होने
ऐसा तो निश्चित ही है, अब यह बदला नहीं ही लेंगे

कहकर ऐसा दिया अर्घ्य, राम ! राम ! कह कर स्वागत
पूजा को स्वीकार किया व, कहा राम से इस प्रकार तब


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.


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