श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
सप्तसप्ततितमः सर्गः
राजा दशरथ का पुत्रों और वधुओं के साथ अयोध्या में प्रवेश, शत्रुघ्न सहित भरत
का मामा के यहाँ जाना, श्रीराम के बर्ताव से सबका संतोष तथा सीता और श्रीराम का
पारस्परिक प्रेम
जमदग्निकुमार चले गये जब, श्री राम ने शांतचित्त हो
धनुष वैष्णवी धरा हाथ में, थमा दिया वह वरुण देव को
कर प्रणाम ऋषि-मुनियों को, देख पिता को विकल अति
कहा, गये जमदग्निकुमार, चले अवध सेना चतुरंगिणी
वचन सुना जब श्रीराम का, अति हर्षित हुए तब राजा
खीँच भुजाओं से राम को, लगा हृदय से मस्तक सूँघा
मानो पुनर्जन्म हुआ था, उनका व श्रीरामचन्द्र का
परशुराम को गया जान, पुलकित हुआ हृदय उनका
दी कूच की आज्ञा सेना को, शीघ्र अयोध्या जा पहुंचे
ध्वजा-पताकायें फहरातीं, गुंजित थी पुरी वाद्यों से
जल छिड़का हुआ सडकों पर, पुरी सुरम्य थी शोभित
ढेर लगे थे कुसुमों के, अयोध्या नगरी थी सज्जित
नगर निवासी व ब्राह्मण, करते थे स्वागत जाकर
जनसमुदाय खड़ा था भारी, मांगलिक वस्तुएं लेकर
कान्तिमान पुत्रों के साथ तब, राजभवन में किया प्रवेश
अनुभव किया अति आनंद, हो स्वजनों से पूजित विशेष
कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी ने, किया प्रबंध बहुओं के हित
श्रुतकीर्ति, सीता, उर्मिला, मांडवी का किया तब स्वागत
सवारी से उतारा उनको, मंगल गीत लगीं सब गाने
देवमन्दिरों में ले जाकर, करवाया तब पूजन उनसे
सास-ससुर को किया प्रणाम, आदर से नव वधुओं ने
बड़े हर्ष से समय बितातीं, संग पतियों रह एकांत में
श्रीराम संग चारों भाई, निपुण अस्त्र विद्या में थे
सम्पन्न धन व मित्रों से, पिता की सेवा करते थे
थोड़ा काल बीतने पर तब, दशरथ ने भरत को बुलाया
रुके युधाजित कई दिनों से, तुम्हें लिवाने आये मामा
शत्रुघ्न के सहित भरत ने, किया विचार यात्रा का तब
पिता, राम व माताओं से, निकल पड़े वे आज्ञा लेकर
बड़े हर्ष से संग मामा के, किया प्रवेश कैकय राज्य में
हर्षित हुए अति नाना तब, संतोष भी हुआ हृदय में
राम-लक्ष्मण दोनों ही तब, सेवा-पूजन पिता की करते
उनकी आज्ञा लेकर राम, नगरवासियों से भी मिलते
संयम में वह स्वयं को रखते, माताओं का भी हित करते
गुरुजनों के भारी कार्य भी, करने का प्रयत्न करते
उनका यह व्यवहार देखकर, राजा, ब्राह्मण, वैश्य सुखी थे
उत्तम शील देख राम का, हर कोई संतुष्ट हुए थे
राजा के चारों पुत्रों में, महा पराक्रमी श्रीराम थे
जैसे स्वयंभू ब्रह्मा शोभित, होते हैं सब भूतों में
सीता के हृदय मन्दिर में, राम सदा विराजमान थे
ऐसे ही राम का मन भी, लगा हुआ था सीता ही में
पतिव्रता, प्रिय सीता संग, किया विहार कई ऋतुओं तक
अति सुन्दरी भी थीं सीता, प्रेम राम का बढ़ता प्रतिपल
गुण व सौन्दर्य के कारण, राम प्रीति के
पात्र बने थे
बिना कहे ही जाना करतीं, सीता अभिप्राय को उनके
अति सुन्दरी थीं रूप में, मूर्तिमती लक्ष्मी सी थीं
श्रीराम को ही चाहती, उनके संग शोभा पाती थीं
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सतहत्तरवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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