श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः सर्गः
श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह
राजा दशरथ ने जिस दिन, किया श्रेष्ठ गोदान विवाह हित
आ पहुंचे थे वहाँ उसी दिन, भरत के मामा वीर युधाजित
दर्शन कर राजा दशरथ के, पूछ कुशल कहे वचन ये
बड़े स्नेह से मंगल पूछा, है केकयदेश राजा ने
सभी वहाँ सानंद स्वस्थ हैं, कुशल जानना चाहें जिनका
भरत से मिलना वे चाहते, उन्हें लिवाने मुझको भेजा
किन्तु अयोध्या में यह सुनकर, मिथिलापुरी आप आये हैं
भांजे से मिलने की लालसा, यहीं मुझे खीँच
लायी है
राजा ने किया सत्कार, थे प्रिय अतिथि आदरणीय भी
बीती रात्रि, प्रातः होते ही, यज्ञशाला पहुँचे जनक की
विवाह योग्य मुहूर्त आया, ‘विजय’ नाम जब, सभी पधारे
दूल्हे के अनुरूप सजे तब, भाईयों संग राम भी आये
मंगलाचरण पूर्ण कर चुके, वसिष्ठ मुनि व अन्य महर्षि
राजा जनक से कहे वचन ये, आज्ञा दें भीतर आने की
दाता और प्रतिग्रहीता का, दोनों का संयोग हुआ जब
दान धर्म तभी सम्भव है, आप उन्हें बुलवाएँ अब
परम उदार महातेजस्वी, राजा जनक ने कहे वचन ये
कोई पहरेदार नहीं है, प्रतीक्षा है आदेश की किसके
अपने घर में आने हेतु, कैसा करते सोच-विचार
यह राज्य जैसे मेरा, अपना जान करें व्यवहार
मंगलकृत्य पूर्ण हो चुके, वैवाहिक सूत्र बंधन के
यज्ञ वेदी के निकट आ चुकीं, अग्नि-शिखाओं सम कन्याएं
आपकी ही प्रतीक्षा हेतु, बैठा हूँ मैं भी वेदी पर
निर्विघ्न कार्य करें अब, है विलम्ब किस बात का अब
बात सुनी जब मुख वसिष्ठ से, राजा जनक की कही बात ये
पुत्रों और महर्षियों संग तब, राजा
दशरथ भीतर आये
विदेहराज ने कहा वसिष्ठ से, करें विवाह की क्रिया पूर्ण
विश्वामित्र व शतानंद संग, वेदी बनी तब विधिपूर्वक
गंध और फूलों के द्वारा, चारों ओर से खूब सजायी
सुवर्ण-पालिकाएं मंगवायी, यव अंकुर से युक्त कलश भी
अंकुर जमे सकोरे भी थे, धूप युक्त धूम पात्र भी
शंख पात्र, स्रुवा, स्रुक, अर्घ्य, लावा से भरे पात्र भी
अक्षत आदि सभी सामग्री, कुश भी चारों ओर बिछाया
किया विधि से अग्नि स्थापन, मन्त्र पाठ कर हवन किया
तब नृप ने अलंकृत पुत्री को, बिठाया राम चन्द्र के पास
कहा राम से ‘हो कल्याण’, सीता को स्वीकार करो अब
सदा तुम्हारे साथ रहेगी, जैसे छाया यह पतिव्रता
ऐसा कह राम के हाथ में, संकल्प का जल छोड़ा
देवताओं, ऋषियों के मुख से, साधुवाद तब पड़े सुनाई
बजे नगाड़े, तब देवों के, फूलों की वर्षा भी हुई
मन्त्र व संकल्पित जल से, पुत्री के
दान से हर्षित
कहा लक्ष्मण से राजा ने, दूँ उर्मिला को तुम हित
स्वीकारो, लो हाथ हाथ में, नहीं विलम्ब करो इसमें
कहा भरत से तब राजा ने, मांडवी का लो हाथ हाथ में
शत्रुघ्न से कहा विदेह ने, पाणिग्रहण करो श्रुतकीर्ति का
चारों भाई हो शांत स्वभाव, पालन करते श्रेष्ठ व्रतों का
चारों हो संयुक्त पत्नी से, इसमें न विलम्ब करो अब
वचन सुने जब ये राजा के, हाथ हाथ में लिए थे तब
की परिक्रमा निज पत्नी संग, अग्नि-वेदी, पिता, ऋषियों की
विधिपूर्वक किया पूर्ण तब, वैवाहिक क्रिया सम्पन्न की
हुई सुहानी वर्षा पुष्पों की, दिव्य ध्वनि भी शब्द मनोहर
नृत्य किया अप्सराओं ने, गन्धर्वों ने गायन भी मधुर
अद्भुत दृश्य दिखा विवाह में, अग्नि परिक्रमा तीन बार की
जनवासे में तब गये वे, सबके संग पीछे राजा भी
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिहत्तरवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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