श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
बोधोपल्ब्धि
मैं नारायण, त्रिपुरारी हूँ, नरकासुर का घातक भी हूँ
मुक्त, साक्षी, निर्मम, निरहंकार, परमपुरुष, ईश्वर हूँ
ज्ञानस्वरूप, आश्रय सबका, सबके भीतर बाहर भी मैं
जो पहले भिन्न दीखते थे, वही भोक्ता, भोग्य भी मैं
मैं अखंड, आनंद समुद्र सा, विश्वरूप उठती हैं तरंगें
माया वायु बन के डुलाती, उठती, गिरती रहें तरंगें
जैसे काल में खंड नहीं हैं, कल्प, वर्ष कल्पित हैं सारे
भ्रमवश केवल स्फुरण मात्र से, स्थूल, सूक्ष्म कल्पित हैं मुझमें
मृगतृष्णा का जल महान हो, भूमि खंड को भिगो न सकता
बुद्धि से आरोपित दोष, आश्रय को न छू सकता
निर्लिप्त हूँ नीलगगन सा, अप्रकाश्य हूँ रवि जैसा
पर्वत के समान निश्चल हूँ, हूँ अपार सागर जैसा
जैसे बादल मुक्त गगन से, मुझसे तन का मेल नहीं है
कैसे हो सकते फिर मुझमें, स्वप्न, जाग्रत, सुषुप्ति नहीं है
मात्र उपाधि आती, जाती, कर्म करे और भोगे फल भी
जरा, मृत्यु भी केवल उसकी, मैं निश्चल, अकम्प, साक्षी
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजैसे बादल मुक्त गगन से, मुझसे तन का मेल नहीं है
ReplyDeleteकैसे हो सकते फिर मुझमें, स्वप्न, जाग्रत, सुषुप्ति नहीं है
यही चिरन्तन सत्य है ।
ज्ञानस्वरूप, आश्रय सबका, सबके भीतर बाहर भी मैं
ReplyDeleteजो पहले भिन्न दीखते थे, वही भोक्ता, भोग्य भी मैं
मैं अखंड, आनंद समुद्र सा, विश्वरूप उठती हैं तरंगें
माया वायु बन के डुलाती, उठती, गिरती रहें तरंगें
anant satya....
मात्र उपाधि आती, जाती, कर्म करे और भोगे फल भी
ReplyDeleteजरा, मृत्यु भी केवल उसकी, मैं निश्चल, अकम्प, साक्षी
...एक शास्वत सत्य...आभार
सदा जी, वन्दना जी, कैलाश जी, पूनम जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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