श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि
बोधोपल्ब्धि (शेष भाग)
सदा एकरस और निरवयव, एक रूप मैं घनीभूत हूँ
कैसे हो प्रवृत्ति मुझमें, निवृत्ति से भी अशेष हूँ
इंद्रिय, चित्त, विकार नहीं हैं, निराकार आनंद स्वरूप
पाप-पुण्य से रहित सदा मैं, श्रुति भी कहे बोध स्वरूप
उष्ण-शीत या भली-बुरी हो, वस्तु कोई छाया को छू ले
व्यक्ति को न छू सकती है, ज्यों प्रकाश को कुछ न छुए
देह के धर्म न छू सकते हैं, देह से परे आत्मा को
निर्विकार, उदासीन जो, क्या छुए परमात्मा को
सूर्य साक्षी सब कर्मों का, अग्नि साक्षी है ज्वलन की
रज्जु से ज्यों सँग सर्प का, आत्मा साक्षी है विषयों की
न मैं कर्ता, न ही कराता, न भोक्ता न भुगतवाता
न ही देखता, न दिखलाता, हूँ विलक्षण साक्षी आत्मा
चंचल जल में बिम्ब भी चंचल, सूर्य किन्तु अचल है नभ में
सूर्य समान आत्मा निश्चल, चित्त ही चंचल होता देह में
घट से ज्यों अलिप्त आकाश, देह से भिन्न आत्मा है
बुद्धि का ही खेल है सारा, प्रकृति से अतीत आत्मा
प्रकृति में विकार हजारों, क्या संबंध आत्मा का है
मेघ न छू सकते हैं नभ को, बस आभास दृष्टि का है
अव्यक्त से स्थूल भूत तक, जिसमें यह आभास मात्र है
आदि-अंत से रहित सूक्ष्म यह, परम ब्रह्म आत्मा है
बहुत सुन्दर ...प्रशंसनीय
ReplyDeletekalamdaan.blogspot.in
घट से ज्यों अलिप्त आकाश, देह से भिन्न आत्मा है
ReplyDeleteबुद्धि का ही खेल है सारा, प्रकृति से अतीत आत्मा
प्रकृति में विकार हजारों, क्या संबंध आत्मा का है
मेघ न छू सकते हैं नभ को, बस आभास दृष्टि का है
अव्यक्त से स्थूल भूत तक, जिसमें यह आभास मात्र है
आदि-अंत से रहित सूक्ष्म यह, परम ब्रह्म आत्मा है
अनमोल कथन, आभार!
आप जो यह हम सब के साथ शेयर करती हैं, यह तो बहुत ही अच्छा काम कर रही हैं | आपका बहुत आभार |
ReplyDeleteसराहनीय......
ReplyDeleteनेता- कुत्ता और वेश्या (भाग-2)
चंचल जल में बिम्ब भी चंचल, सूर्य किन्तु अचल है नभ में
ReplyDeleteसूर्य समान आत्मा निश्चल, चित्त ही चंचल होता देह में
WAH KYA KHOOB LIKHA HAI AP NE ....PADH KR BHAV VIBHOR HO GAYA ....HAN MERE NAYE POST PR AMANTRAN SWEEKARE |
अनुपम..अद्भुत...बेमिशाल...
ReplyDeleteकाव्यात्मक व्याख्या से हृदय में आनंद की हिलोरे उठ रहीं हैं.
बहुत बहुत आभार आपका.
रितु जी, शिल्पा जी, राकेश जी, नवीन जी, दिनेश जी व अनुराग जी आप सभी का स्वागत व आभार!
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