श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकोन सप्ततितमः सर्गः
भरत की चिंता, मित्रों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का
प्रयास तथा उनके पूछने पर भरत का मित्रों के समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दुःस्वप्न
का वर्णन करना
जिस रात्रि प्रवेश किया था, आकर दूतों ने उस नगरी में
इक अप्रिय स्वप्न देखा था, पूर्व रात्रि को कुमार भरत ने
प्रायः भोर होने को थी, स्वप्न देख जब हुए थे
चिंतित
दुखी उन्हें जान मित्रों ने, एक सभा तब की आयोजित
क्लेश मानसिक दूर हो सके, उन्हें सुनाया वीणा वादन
हास्य रसों की थी प्रधानता, नृत्य, नाटिका का भी मंचन
किन्तु भरत प्रसन्न ना हुए, प्रियवादी उन मित्रों के संग
देख उन्हें तब व्यथित निरंतर, एक मित्र ने पूछा कारण
कहा भरत ने, तुम्हें बताता, किस कारण यह दैन्य हुआ था
स्वप्न में देखा पिता को अपने, खुले केश व मुख मलिन था
पर्वत की चोटी से गिरकर, गोबर के खड्ड में पड़े थे
तिल, भात
का भक्षण करके, हँसते हुए से तेल पी रहे
सागर को सूखते देखा, चाँद को गिरते हुए धरा पर
उपद्रव से ग्रस्त थी वसुधा, अंधकार छाया सभी ओर
दांत टूट कर हुआ था टुकड़े, महाराज के गजराज का
प्रज्ज्वलित अग्नि सहसा बुझ गयी, पर्वतों से निकलता धुआं
फटी है धरती, वृक्ष सूख गये, पर्वत कई ढह गये हैं
काले चौके पर बैठे राजा, स्त्रियाँ प्रहार करती हैं
रक्तिम फूलों की माला पहने, चन्दन भी लाल लगाए
गधे जुते रथ पर बैठे, दक्षिण दिशा की ओर बढ़ रहे
लाल वस्त्र पहने इक औरत, राक्षसी प्रतीत होती थी
महाराज को हँसती हुई वह, खींचकर लिए जाती थी
यह भंयकर स्वप्न देखा है, इसका फल यही तो होगा
पिता, राम या लक्ष्मण में से, कोई प्राप्त मृत्यु को
होगा
गधे जुते रथपर चढ़कर जो, नर स्वप्न में नजर है आता
उसकी चिता का धुआं शीघ्र ही, वास्तव में दिखाई देता
इस कारण ही दुखी हो रहा, गला शुष्क, मन मेरा व्याकुल
भय का कारण नहीं देखता, फिर भी भय से मैं हूँ आकुल
स्वर बदला, कांति फीकी है, स्वयं से ही नफरत होती है
क्या है इसका कारण लेकिन, मेधा समझ नहीं पाती है
पहले कभी नहीं सोचा था, ऐसे दु:स्वप्नों को देखा
चिंतित हूँ मैं यही सोचकर, दूर नहीं भय को कर पाता
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के
अयोध्याकाण्ड में उनह्त्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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