श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टषष्टितम: सर्ग:
वसिष्ठजी की आज्ञा से पांच दूतों का अयोध्या से केकयदेश के
राजगृह नगर में जाना
मुनि वसिष्ठ ने दिया यह उत्तर, सुने वचन जब मंत्रीगण
के
राज्य दिया भरत को नृप ने, भाई सहित है घर मामा के
तीव्रगामी अश्वों पर चढ़कर, दूत उन्हें बुलाने जाएँ
इसके सिवा कुछ और विचार, हम मिलकर भी क्या कर सकते
सभी ने मानी बात मुनि की, दूतों को ये संदेश दिए
सिद्धार्थ, विजय, अनंत, अशोक ! जो
हम कहते सुनो ध्यान से
अश्वों पर होकर सवार तुम, तेज गति से जो चलते हों
राजगृह नगर को जाओ, भाव शोक का प्रकट नहीं हो
सबका कुशल-मंगल बताकर, राजकुमार से यह कहना
शीघ्र चलें अयोध्या वापस, आवश्यक अति कार्य आया
नहीं बताना यहाँ का हाल, राम का वनवास न कहना
पिता की मृत्यु, दुःख परिस्थति, इसकी चर्चा भी न करना
कैकय राज व भरत के हेतु, वस्त्र रेशमी, आभूषण लो
यात्रा की तैयारी करके, गये दूत शीघ्र राजगृह को
अपर ताल नामक पर्वत तक, प्रलम्ब गिरी के उत्तर में
नदी मालिनी जो बहती है, उसके तट पर होते गये
हस्तिनापुर में पार की गंगा, पश्चिम के पांचाल देश
गये
कुरुजांगल प्रदेश से होते, आगे बढ़ते वे सुंदर पथ से
कुसुमों से सुशोभित सर्वर, निर्मल जल वाली नदियों
को
थी पक्षियों से सेवित जो, लाँघ गये नदी शरदंडा को
शरदंडा के पश्चिम तट पर, दिव्य वृक्ष पर देव का
वास
जो याचना वहाँ की जाती, सफल होती थी वह आयास
सत्योपयाचन नाम वाले, परिक्रमा पावन वृक्ष की
दूतों ने की आदर से, कुलिंगा पुरी में प्रवेश
किया
तेजोभिभवन गाँव मिला फिर, जा पहुँचे अभिकाल गाँव
में
इक्षुमती को पार किया, सेवित जो नृप के पूर्वजों से
अंजलि भर जल पीकर ही, तप करने वाले ब्राह्मणों
का
दर्शन कर पहुँचे दूत तब, बाह्लीक के पर्वत सुदामा
जिस पर्वत के शिखर पर स्थित,
चरण चिह्न
थे अंकित विष्णु के
गये व्यास नदी के तट पर, दर्शन किये शाल्मली वृक्ष के
आगे बढने पर नदियों को, बावड़ियों, पोखर,
तालाबों
भांति-भांति के जीव-जन्तुओं,
देख कर
बढ़ते आगे को
स्वामी की इच्छा का पालन, शीघ्र करें थी यही कामना
थक गये थे अश्व भी उनके, मार्ग दीर्घ उपद्रव रहित
था
तय करके वे सारे दूत, गिरिव्रज नगर में जा
पहुँचे थे
प्रिय करने अपने स्वामी का,
प्रजावर्ग
की रक्षा करने
रजा दशरथ के राज्य को, भरतजी से स्वीकार कराने
सादर तत्पर हुए दूत वे, रात्रि में ही लक्ष्य पर
पहुँचे
इस प्रकार
श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अरसठवाँ सर्ग पूरा
हुआ.
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