Wednesday, September 27, 2017

भरत का पिता आदि की कुशल पूछना और शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

सप्ततितम: सर्ग:

दूतों का भरत को उनके नाना और मामा के लिए उपहार की वस्तुएँ अर्पित करना और वसिष्ठ जी का संदेश सुनाना, भरत का पिता आदि की कुशल पूछना और नाना से आज्ञा तथा उपहार की वस्तुएँ पाकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान करना

स्वप्न वृत्तान्त निज मित्रों को, कहा भरत ने जिन घड़ियों में  
उसी काल थके वाहन लेकर, राजगृह में दूत पधारे 

असह्य ही था शत्रुओं को भी, जिसकी खाई को लाँघना
उस केकयदेश आ पहुँचे, राजा आदि का सम्मान किया

दूतों का भी राजा, पुत्र  ने, किया उचित आदर सत्कार
भावी राजा भरत को झुककरछूकर चरण कहे उद्गार

पुरोहित व मंत्रियों ने मिल, कुशल-मंगल है कहा आपसे
अयोध्या में कार्य आवश्यक, चलिए आप शीघ्र यहाँ से

विशाल नेत्रों वाले कुमार !, ग्रहण करें वस्त्र, आभूषण
बहुमूल्य सामग्री है यह, मामा का भी करें अभिनंदन

बीस करोड़ की लागत वाली, नानाजी  के लिए  उपस्थित
दस करोड़ की कीमत वाली, भेजी गयी मामा की खातिर 

लेकर वे वस्तुएँ सारी तबबाँटी भरत ने सुहृदों में
इच्छानुसार दीं दूतों को भी, कर आदर यह वचन कहे

सकुशल तो हैं पिता मेरे, राम, लक्ष्मण निरोगी, सुखी भी  
धर्मज्ञा माँ कौसल्या को, रोग या कोई कष्ट तो नहीं

वीर लक्ष्मण व शत्रुघ्न की, जो जननी मझली माँ सुमित्रा
स्वस्थ और सुखी तो हैं, धर्म परायणा, पूज्या, आर्या

स्वार्थ सिद्ध करना जो चाहे, बुद्धिमती जो खुद  को माने
कठोर अति स्वभाव वाली माँ, कैकेयी ने क्या वचन कहे

पूछने पर भरत के यह सब, दूतों ने ये वचन कहे थे
जिनका कुशल-मंगल अभिप्रेत, सकुशल हैं परिजन सभी वे

कमल लिए हाथों में लक्ष्मी, वरण करें सदैव आपका
रथ जुतकर अब हों तैयार, शीघ्र करें आरम्भ यात्रा

नाना जी से भी मैं पूछ लूँ, कहा भरत ने तब दूतों से 
क्या आज्ञा है महाराज की, दूत मुझे जाने को कहते

नाना के निकट जा बोले, जा रहा हूँ मैं नगर पिता के
याद करेंगे जब भी आप, आ पुनः मिलूँगा मैं आपसे

मस्तक सूँघ कुमार भरत का, राजा ने शुभ वचन यह कहा
जाओ, मैं आज्ञा देता हूँ, माँ-पिता को कुशलता कहना 

पुरोहित और ब्राह्मणों से भी, मेरा कुशल-मंगल कहना
श्रीरामचन्द्र, लक्ष्मण को भी, विवरण सभी यहाँ का कहना

ऐसा कहकर किया सत्कार, उन्हें अनेकों उपहार दिए
मृग चर्म, कालीन विचित्र कुछ, उत्तम हाथी भी भेंट किये

अंत:पुर में पले-पोसे थे, बल में बाघों के समान थे
अति विशाल काया वाले थे, कुछ कुत्ते ऐसे भेंट किये

दो हजार सोने की मोहरें, सोलह सौ घोड़े बलवान
कर दिया साथ मंत्रियों को, भेंट में देकर धन भी अपार

मामा ने दिए गज बलवान, इरावान पर्वत से आए
शीघ्रगामी और सुशिक्षितदिए खच्चर कई इन्द्रशिर के

जाने की जल्दी थी उनको, किया नहीं धन का अभिनंदन
हृदय में चिंता थी भारी, देख दूत, दु:स्वप्न का दर्शन

गये प्रथम वह निज वास को, यात्रा की तैयारी करने
गज, अश्व मनुजों से भरा जो, राजमार्ग को निकल वहाँ से

सड़क पार कर भरत कुमार, राजभवन के भीतर पहुँचे
नाना, नानी, मामा जी से, ले विदा रवाना हो गये

सौ से अधिक रथों में बैठ, चले साथ उनके सेवक जन
हो सेना से पूर्ण सुरक्षित, इंद्र समान किया प्रस्थान



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.

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