श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः
विश्वामित्र को ऋषि एवं महर्षि पद की प्राप्ति, मेनका द्वारा उनका तपोभंग तथा
ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति के लिए उनकी घोर तपस्या
एक सहस्त्र वर्ष बीते जब, व्रत समाप्ति का किया स्नान
तप का फल देने हेतु तब, आये देव सब उस स्थान
ब्रह्माजी ने कहे वचन ये, मधुर अति थी वाणी उनकी
हो कल्याण तुम्हारा मुनिवर, अब शुभकर्मों से हुए ऋषि
स्वर्ग गये ब्रह्मा जी कहकर, तप में पुनः लगे थे मुनिवर
बहुत समय जब बीत गया था, आयी मेनका तब पुष्कर
अति सुन्दरी थी अप्सरा, रूप और लावण्य अद्भुत
जल में शोभित होती ऐसे, बादल में ज्यों चमके विद्युत
हुए काम आधीन मुनि तब, बोले ऐसा उसे देखकर
स्वागत है तेरा अप्सरा, इस आश्रम में तू निवास कर
हो रहा हूँ काम से मोहित, कर कृपा, भला हो तेरा
ऐसा कहने पर उनके वह, रहने लगी वहीं अप्सरा
तप का विघ्न हुआ उपस्थित, दस वर्ष ऐसे ही बीते
लज्जित हुए मुनि चिंतित भी, गहन शोक में तब डूबे
मुनि के मन में एक विचार, रोषपूर्वक हुआ था उत्पन्न
देवताओं की है करतूत, मेरे तप का किया अपहरण
दस वर्ष पल में बीते हैं, कामजनित मोह ने बांधा
देवों का प्रयास ही आया, तप के पथ में बनकर बाधा
लम्बी साँस खींचकर मुनिवर, पश्चाताप से हुए दुःखित
थर-थर भय से हुई अप्सरा, हाथ जोड़ आयी कंपित
कुशिका नंदन विश्वामित्र ने, मधुर वचन कह विदा किया
स्वयं गये उत्तर पर्वत पर, दुर्जय तप आरम्भ किया
निश्चयात्मक बुद्धि का तब, लिया आश्रय कौशिकी तट पर
कामदेव पर विजय हेतु तब, तप किया हजार वर्ष तक
देवों को तब भय हो आया, ऋषियों संग चर्चा की मिल
महर्षि की पदवी पा लें, उत्तम बात यही इनके हित
स्वागत है महर्षे तुम्हारा, ब्रह्माजी फिर जाकर बोले
ऋषियों में श्रेष्ठता देता, हूँ संतुष्ट तुम्हारे तप से
ब्रह्मर्षि का पद चाहता, कर प्रणाम तब कहा मुनि ने,
जितेन्द्रिय स्वयं को समझूंगा, शुभकर्मों का फल ये दें
ब्रह्मा जी ने कहे वचन तब, जितेन्द्रिय अभी नहीं हुए
प्रयत्न करो इसके हेतु तुम, स्वर्गलोक वह चले गये
पुनः तपस्या की आरम्भ, दोनों हाथ उठाये ऊपर
बिना किसी आधार के खड़े, रहते केवल वायु पीकर
पंचाग्नि का सेवन करते, वर्षाकाल, खुले में रहते
एक हजार वर्ष किया तप, शीत काल, जल में रहते
तब भारी संताप हुआ था, देवों और इंद्र के मन में
रम्भा से इक बात कही तब, मरुद्गणों सहित इंद्र ने
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
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