श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
चतुष्टितमः सर्गः
विश्वामित्र का रम्भा को शाप देकर पुनः घोर तपस्या के लिए दीक्षा लेना
हुआ उपस्थित है देवों का, एक बड़ा कार्य, हे रम्भा !
काम-मोह के वश हो जाएँ, विश्वामित्र मुनि को लुभा
‘तू ही ऐसा कर सकती है’, सुनकर लज्जित हुई अप्सरा
हाथ जोड़कर बोली तब वह, मुनि का क्रोध है अति बड़ा
उनसे मुझे अति भय लगता है, कृपा करें हे देवेश्वर !
‘भय न कर’ यह कहा इंद्र ने, खड़ी कांपती थी थर थर
नव पल्लव से वृक्ष भरे हों, उस वैशाख माह में जाना
कोकिल मधुर रागिनी गाये, कामदेव संग मैं भी रहूँगा
परम कांति मय रूप है तेरा, हाव-भाव से होकर युक्त
विचलित कर दे महामुनि को, विविध गुणों से हो संयुक्त
देवराज की आज्ञा पाकर, सुंदर रूप बनाया उसने
गयी जहाँ मुनि तप करते थे, भाव से लुभाया उसने
मीठी बोली सुन कोकिल की, हुए प्रसन्न मुनि ने देखा
रम्भा खड़ी दिखायी दी तब, संदेह ने मन को घेरा
समझ गये वे पल भर में ही, देवराज का रचा कुचक्र
क्रोध में भरकर शाप दिया, बन जा तू प्रतिमा प्रस्तर
तप करने को मैं तत्पर हूँ, काम-क्रोध जीतना चाहता
रह दस सहस्त्र वर्ष तक शापित, फिर होगा उद्धार तेरा
ऐसा कहकर हुए संतप्त, क्रोध किया था महामुनि ने
कामदेव व इंद्र खिसक गये, सुनकर शापयुक्त वचन ये
हुआ तपस्या का क्षय मुझसे, अभी इन्द्रियां नहीं हैं वश में
यही विचार कर हुए अशांत, कुछ न बोलूँगा अब से
सौ वर्षों तक श्वास न लूंगा, देह को तप से सुखा ही दूंगा
जब तक ब्राहमणत्व न मिले, बिन खाये ही पड़ा रहूँगा
ऐसा दृढ़ निश्चय करके ली, मुनिवर ने दीक्षा तप की
एक हजार वर्ष का तप था, नहीं है तुलना उस तप की
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौसठवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
उम्दा....बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन
स्वागत व आभार प्रसन्न जी
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