श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
पञ्चषष्टितम सर्गः
विश्वामित्र जी की घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्णत्व की प्राप्ति तथा राजा जनक का
उनकी प्रशंसा करके उनसे विदा ले राजभवन को लौटना
उत्तर दिशा त्याग मुनि तब, पूर्व दिशा तप हेतु गये
परम मौन साध कर उत्तम, दुष्कर तप में लगे रहे
एक हजार वर्ष होने तक, थे निश्चेष्ट काष्ठ की भांति
कई विघ्नों का हुआ आक्रमण, आया किन्तु क्रोध नहीं
निश्चय पर रह अटल मुनि ने, अक्षय तप का किया वरण
पूर्ण हुआ जब व्रत उनका, करने चले थे अन्न ग्रहण
इसी समय ब्राह्मण वेश में, इंद्र ने उनसे की याचना
मुनि ने तब वह सारा भोजन, देने का निश्चय कर डाला
बिन खाए ही रहे गये वे, फिर भी कोई दुःख न माना
मौन का पालन किया यथावत्, पुनः एक अनुष्ठान किया
श्वासोच्छ्वास से रहित मौन रह, एक हजार वर्ष बिताये
उठने लगा था तप के कारण, मस्तक से तब धुआं उनके
हो संतप्त सभी घबराए, तीनों लोकों के प्राणी तब
मोहित हुए सर्प, राक्षस, देव, ऋषि, गन्धर्व नाग सब
कांति पड़ी थी फीकी सबकी, ब्रह्माजी को जाकर बोले
विश्वामित्र रहे अविचलित, निमित्त कई गये अपनाये
किन्तु नहीं वे हुए प्रभावित, लोभ और क्रोध दोनों से
आगे ही बढ़ते जाते हैं, मुनिवर अपने तप के बल से
कोई दोष नहीं है उनमें, पूर्ण हुआ है तप उनका
मनचाही वस्तु न मिली तो, तप से होगा नाश बड़ा
धूम से आच्छादित हुई हैं, चार दिशाएं, कुछ न सूझे
डगमग धरती डोल रही है, क्षुब्ध हुए हैं सागर सारे
पर्वत हुए विदीर्ण जा रहे, आंधी भी प्रचंड चलती है
नहीं सूझता कोई उपाय, उपद्रव से पीड़ा बढ़ती है
कर्मानुष्ठान से हुए शून्य, नास्तिक की भांति विचरते
क्षुब्ध हुआ मन हर प्राणी का, किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुए वे
सूर्य प्रभा भी फीकी पड़ गयी, विश्वामित्र के तेज के आगे
अग्निस्वरूप हुए हैं मुनिवर, शांत करें उन्हें समय के रहते
प्रलय कारक अग्नि ने जैसे, भस्म किया था पूर्वकाल में
वैसे ही ये भस्म न करें, जाने क्या अभिलाषा मन में
देवों का राज्य चाहें तो, दें डाले, पूर्ण करें इच्छा
मधुर वाणी में मुनि से बोले, ब्रह्मा आदि तब देवता
ब्रह्मर्षे ! स्वागत है तुम्हारा, हैं संतुष्ट तुम्हारे तप से
प्राप्त किया है ब्राह्णत्व, तुमने उग्र तपस के बल से
दीर्घ आयु प्रदान करता हूँ, मरुद्गण सहित तुमको मैं
हो कल्याण तुम्हारा सौम्य, सुखपूर्वक रहो इस जग में
विश्वामित्र ने बात सुनी जब, किया प्रणाम सभी देवों को
मिला मुझे ब्राह्णत्व, आयु भी, ओंकार भी वरण करे
षट्कार व चारों वेद भी, स्वयं मुझे धारण करें
धनुर्वेद, ब्रह्मवेद के ज्ञाता, वसिष्ठ स्वयं आकर कहें
ऐसा होने पर समझूंगा, हुआ मनोरथ पूर्ण मेरा तब
उसी अवस्था में जा सकते, आप यहाँ से श्रेष्ठ देवगण
देवों ने किया निवेदन, श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ आये
‘एवमस्तु’ कहकर स्वीकारा, विश्वामित्र के मित्र हुए
ब्रह्मर्षि हो गये मुनि तुम, नहीं कोई संदेह है इसमें
ब्राह्नोचित संस्कार सधा है, कह देव सब लौट गये
Nice. I am really impressed by read this. Thanks for sharing with us. Ind Govt Jobs
ReplyDeleteविश्वामित्र की कहानी तो कई बार पढ़ी व टी वी पर देखी हैं लेकिन काव्य पहली बार पढ़ा... अच्छी कविता.....
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in