श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
त्रिषष्टितम: सर्गः
राजा दशरथ का शोक और उनका कौसल्या से अपने द्वारा मुनिकुमार
के मारे जाने का प्रसंग सुनाना
करुणा भरे वचन सुनकर ये, मन में अति व्यथा हुई मेरे
कहाँ धर्म की अभिलाषा थी, कहाँ अधर्म किया था मैंने
करुणा भरे वचन सुने ऋषि के, धनुष-बाण तब छूट गये थे
होने लगी विलुप्त चेतना, घबराया मैं शोक वेग से
अंतर में छा गयी दीनता, हृदय अत्यंत हो गया दुखी
सरयू के तट पर जा देखा,पड़े थे घायल एक तपस्वी
बिखरी हुईं जटाएं उनकी, रक्त, धूल में देह सनी थी
जल घड़े का पतित हुआ था, देह बाण से बिंधी हुई थी
भय से आकुल चित्त हुआ तब, दशा देखकर यह मुनिवर की
मानो भस्म मुझे कर देंगे, डाली मुझपर ऐसी दृष्टि
पूछा तब कठोर वाणी में, क्या अपराध किया था मैंने
माता-पिता के हित आया, जल लेने की ही इच्छा से
एक बाण से मर्म विदीर्ण कर, बूढ़े मा-पिता को मारा
दुर्बल और नेत्रहीन हैं, बैठे हैं ले जल की आशा
लगता फल विहीन ही होता, तप या पूरा शास्त्र ज्ञान भी
पड़ा हूँ मैं मृत्युशैया पर, नहीं जानते पिता हैं यह भी
जान भी लें तो क्या कर सकते, चलने-फिरने में असमर्थ
वृक्ष वृक्ष को बचा न पाए, रक्षा में मेरी नहीं
समर्थ
तुम्हीं शीघ्र जाकर यह कह दो, तब वे शाप नहीं देंगे
यदि स्वयं ही कह दोगे तो, क्रोध से भस्म नहीं करेंगे
उधर गयी है यह पगडंडी, जहाँ माँ-पिता का आश्रम
है
तुम जाकर शीघ्र प्रसन्न करो, कुपित हुए वे शाप न दे दें
पीर मर्मस्थान को देता, बाण निकालो तन से मेरे
जैसे नदी के जल का वेग, कोमल बालू तट को तोड़े
मुनिकुमार की बात सुनी जब, घिरे चिंता में मेरे प्राण
नहीं निकालूँ पीड़ा देगा, मृत्यु दे अगर निकालूँ
बाण
लक्ष्य किया था इस दुविधा को, मुनिकुमार ने तब राजा की
राजन, पीड़ा अति मैं पाता, मृत्यु निकट आयी है मेरी
नेत्र चढ़े, हर अंग में कष्ट, नहीं चेष्टा कोई होती
कर स्थिर मन को, रोक शोक को, धीरज से कहता हूँ फिर भी
ब्रह्म हत्या मुझसे हो गयी, इस चिंता को तुम दूर करो
नहीं हूँ ब्राह्मण इसीलिए तुम,
न अपने उर
में व्यथा करो
वैश्य पिता व शूद्र माता हैं, इतना ही वह कह पाये थे
बड़े कष्ट का अनुभव करते, पीड़ा से छटपटा रहे थे
मैंने बाण निकाला तन से, भयभीत हो देखा मुझको
प्राण त्याग दिए थे तत्क्षण, देख उन्हें हुई पीड़ा मन को
इस प्रकार
श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
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