श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः
राजा दशरथ का अपने द्वारा मुनिकुमार के वध से दुखी हुए उनके
माता-पिता के विलाप और उनके दिए हुए शाप का प्रसंग सुनाकर कौसल्या के समीप
रोते-बिलखते हुए आधी रात के समय अपने प्राणों को त्याग देना
अनजाने में मेरे हाथों,
बेटे
का वध हुआ आपके
मेरे प्रति शाप या अनुग्रह, हो प्रसन्न अब उसको दे दें
अपने मुख से प्रकट किया था, पाप कृत्य महर्षि के आगे
बात क्रूरता पूर्ण सुनी पर, शाप कठोर वे नहीं दे सके
आँखों से आँसूं बह निकले, गहरी श्वासें लीं पीड़ा से
हाथ जोड़ मैं वहाँ खड़ा था, शब्द कहे यही महामुनि ने
यदि यह अपना पापकर्म तुम, स्वयं आकर ही नहीं बताते
शीघ्र तुम्हारे इस मस्तक के, शत-सहस्त्र टुकड़े हो जाते
जानबूझ यदि कोई क्षत्रिय, वध करता वानप्रस्थी का
वज्रधारी इंद्र हो चाहे,
निज
स्थान से भ्रष्ट हो जाता
तप में लगे हुए मुनिपर,
शस्त्र
प्रहार यदि कोई करता
मस्तक टुकड़े-टुकड़े होकर,
सप्त
भाग में बंट जाता
अनजाने में पाप किया है,
इसीलिए
जीवित हो अब तक
जानबूझ कर यदि करते तो, बचता नहीं रघुवंश का कुल
कहा उन्होंने यह भी मुझसे, उस स्थान पर ले चलो हमें
जहाँ हमारा पुत्र पड़ा है, अंतिम दर्शन उसका कर लें
दुःख में पड़े थे दम्पत्ति वे, उनको लेकर गया अकेला
जहाँ काल के हो आधीन,
सुत
पृथ्वी पर अचेत पड़ा था
खून से लथपथ सभी अंग थे,
मृगचर्म
व वस्त्र बिखरे थे
स्पर्श कराया सुत के तन का, पत्नी सहित मुनि को मैंने
वे दोनों गिर पड़े थे तन पर, कहा पिता ने तब पुत्र से
न तो करते हो प्रणाम आज,
ना
ही मुझसे बातें करते
धरती पर क्यों सोये हो तुम, क्या तुम हमसे रूठ गये हो
यदि मैं नहीं हूँ प्रिय तुम्हारा, देखो अपनी माता को तो
इसके हृदय से लग न जाते,
कुछ
तो बोलो पुत्र हमारे
कौन सुनाएगा अब शास्त्र,
पिछली
रात में मधुर स्वरों से
संध्या, स्नान, अग्निहोत्र कर, कौन करेगा सेवा हमारी
कंद. मूल, फल लाकर हमको, भोजन देगा अतिथि की
भांति
अंधी, बूढ़ी, दीन है माता, पुत्र हित उत्कंठित रहती
भरण-पोषण कैसे होगा,
तुमको
सदा ही चिंता रहती
जाओ नहीं यमराज के घर,
तुम
कल चलना साथ हमारे
हम दोनों दुःख से व्याकुल, शीघ्र यमलोक की राह लेंगे
सुर्यपुत्र यम का दर्शन कर, मैं उनसे यह बात कहूँगा
अपराधों को क्षमा करें वे, तुम को दे देंगे प्राण पुनः
धर्मात्मा लोकपाल हैं, दे सकते हैं अभयदान वे
तुम निष्पाप पुत्र हमारे, मारा जिसे एक क्षत्रिय ने
उन लोकों को प्राप्त करो तुम, मेरे सत,तप के प्रभाव से
शूरवीर प्राप्त जो करते हैं, मारे जाने पर युद्ध में
नृप सगर, शैव्य, राजा दिलीप, धुन्धुमार, जनमजेय व नहुष
जिस गति को ये प्राप्त हुए हैं, उस गति को पा जाओगे तुम
मार्मिक प्रसंग
ReplyDeleteस्वागत व आभार अनुराग जी !
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