श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
राजा दशरथ का अपने द्वारा मुनिकुमार के वध से दुखी हुए उनके
माता-पिता के विलाप और उनके दिए हुए शाप का प्रसंग सुनाकर कौसल्या के समीप
रोते-बिलखते हुए आधी रात के समय अपने प्राणों को त्याग देना
स्वाध्याय और तप के बल से, प्राप्ति होती जिस ईश्वर की
परम आश्रयदाता जो है,
प्राप्त
करोगे उसी को तुम भी
भूमिदाता, अग्निहोत्री, एकपत्नी व्रती, व दानी
गुरू सेवक, महाप्रस्थानी, गति मिले तुम्हें उनकी सी
तापस के कुल में जन्मा जो, नहीं दुर्गति उसकी होती
जिसने तुम्हें अकारण मारा, बुरी गति तो उसकी होगी
करने लगे विलाप, पत्नी संग, दी जलांजलि फिर पुत्र को
पुण्यकर्मों के प्रभाव से, जाने लगा कुमार स्वर्ग को
इंद्र सहित उस तापस ने तब, माता-पिता से चर्चा भी की
महान स्थान को प्राप्त हुआ हूँ, सेवा से आप दोनों की
शीघ्र मुझे आ मिलें आप भी, कहकर वह विमान में बैठा
पत्नी सहित मुनि ने मुझसे, हाथ जोड़कर वचन यह कहा
राजन ! मुझे मार डालो तुम, कष्ट नहीं होगा मरने से
एक पुत्र ही था हमारा, पुत्रहीन कर दिया तुम्हीं ने
राजन ! मुझे मार डालो तुम, कष्ट नहीं होगा मरने से
एक ही थी संतान हमारी, पुत्रहीन कर दिया तुमने
की मेरे बालक की हत्या, अज्ञान वश ही निज बाण से
दूँगा तुमको शाप भयंकर, दुखी होगे पुत्र वियोग से
हो क्षत्रिय तुम अनजाने में, वैश्य मुनि का वध कर डाला
ब्रह्महत्या नहीं हुई है, फिर भी होगी दुखद अवस्था
फल प्राप्त जैसे करता है, दक्षिणा देने वाला दाता
हर ले प्राण भयानक ऐसी, शीघ्र मिलेगी तुम्हें अवस्था
इस प्रकार शापित कर मुझको, अति करुणाजनक विलाप किया
जलती हुई चिता में जाकर, दोनों ने तब प्रस्थान किया
बालस्वभाव के वश मैंने,
शब्दवेधी
बाण चलाया
खींचा बाण जब मुनिकुमार का, वध रूपी फिर पाप किया
पुत्र वियोग की चिंता मन में, पाप स्मरण वही हो आया
अपथ्य वस्तुओं के कारण ज्यों, रोग शरीर में आ जाता
उस पापकर्म का फल मिला है, अभिशाप सत्य हुआ मुनि का
नहीं देख पाता हूँ तुमको, प्राणों को विलीन करूंगा
मरणासन्न देख नहीं पाते,
बन्धु
जन को मृत्युकाल में
स्पर्श करें राम यदि मेरा, जी सकता हूँ उसी दशा में
जो बर्ताव किया राम से,
कदापि
नहीं योग्य था मेरे
किंतु राम ने किया है जो भी, योग्य सर्वथा है उनके
पुत्र दुराचारी हो तब भी, कोई भी त्याग नहीं करता
कौन पुत्र ऐसा जग में,
मुझ
जैसे पिता को नहीं कोसता
कौसल्ये ! देख नहीं पाता, स्मरण शक्ति भी लुप्त हो रही
ले जाने को हो उतावले,
आ
पहुंचे हैं यमदूत भी
दर्शन राम के नहीं मिल रहे, इससे बढ़ क्या दुःख हो सकता
जैसे धूप सुखाती जल को,
इन
प्राणों को शोक सुखाता
मानव नहीं देवता हैं वे,
जो
राम को पुनः देखेंगे
सुंदर कुंडल युक्त मनोहर, दर्शन उस मुख का करेंगे
कमल नयन, सुंदर भौहें हैं, स्वच्छ दांत, नासिका सुंदर
चन्द्रोपम मुख श्रीराम का, धन्य बनेंगे दर्शन पाकर
त्याग मूढ़ता सुख पाते ज्यों, उसी प्रकार सुखी होंगे वे
अवधि काटकर वनवास की,
जब
राम अयोध्या लौटेंगे
मोह छा रहा मन पर मेरे, हृदय विदीर्ण हुआ अब जाता
शब्द, स्पर्श, रस, गंध आदि का, भान भी सभी खोया जाता
तेल समाप्त होने पर जैसे, दीपक की प्रभा मिट जाती
नष्ट चेतना के होने से,
इन्द्रियां विनष्ट हुई जातीं
वेग नदी का काट गिराता,
है
जैसे अपने ही तट को
मेरा उत्पन्न किया शोक ही, अचेत किये जाता मुझको
हे रघुनन्दन !, हे श्री राम !, मेरे कष्ट को हरने वाले
हे पिता के प्रिय पुत्र ! तुम, मुझे त्यागकर कहाँ चले गये
कौसल्ये ! कुछ नहीं सूझता, हे सुमित्रा ! मैं अब जाता
शत्रु रूपिणी क्रूर कैकेयी !, कर विलाप तन त्याग दिया
निकट सुमित्रा, कौसल्या के, अंत हुआ उनके जीवन का
पुत्र शोक से व्याकुल थे वे, अर्ध रात्रि को प्रस्थान किया
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के
अयोध्याकाण्ड में चौसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.
बहुत ही बढ़िया
ReplyDelete"कैकेई के प्राण पालन में"
ReplyDeleteकैकेई क प्राण पालन में
राजा दशरथ प्राण त्यागे।
जंगल में मंगल है कह कर,
निकले राम अयोध्या आगे।
निसंकोच लखन सीता संग,
पथ चल लिया राम के साथे।
तीनों निकले तपसी वेश में,
पिता आज्ञा घर सिर माथे।
सीता संकल्प साथ लिया,
रेखा उभरी राम के माथे।
नारी का सम्मान रखने में,
कष्ट भरी यात्रा मिल काटे।
विश्वास खड़ा सबके उर में,
रंग बिरंगी नहीं थी बातें।
राज परिधान मुकुट सबके त्यागे,
पीतांबर वसन धारण किए राजे।
अंधे माता पिता सरवन के,
दशरथ शाप से थे शापित ।
माता आज्ञा तीर्थ यात्रा,
धर्म धारण कंधे पर साधे।
बहुत सुंदर सृजन !
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