श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः
सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का
उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनों की सेवा का महत्व
बताना तथा सीता को वन में चलने के लिए तैयारी के लिए घर की वस्तुओं का दान करने की
आज्ञा देना
बड़े-बड़े नेत्रों से शोभित, पूर्ण चन्द्र सा मुख कांतिमय
जल से निकले कमल की भांति, सूख गया दुःख ताप से
दुःख के मारे थीं अचेत सी, उर से लगा लिया राम ने
दी सांत्वना अति प्रेम से, तब ये सुंदर वचन कहे
स्वर्ग का सुख भी मिलता हो, लूँगा नहीं तुम्हें दुःख देके
स्वयंभू ब्रह्मा की भांति, किंचित भी नहीं भय किसी से
हूँ समर्थ रक्षा में, किन्तु, उचित
नहीं समझता था
बिना तुम्हारी इच्छा के, वन जाने को तुमसे कहना
जब तुम उत्पन्न ही हुई हो, वन में मेरे संग रहने को
ज्यों ज्ञानी प्रसन्नता न त्यागें, नहीं छोड़ सकता मैं तुमको
पूर्वकाल के सत्पुरुषों ने, जिस धर्म का किया था पालन
साथ तुम्हारे रहकर मैं भी, करूंगा उसका ही निर्वहन
सुर्वचला ज्यों सूर्य का करती, तुम भी करो अनुगमन मेरा
सम्भव नहीं कि वन न जाऊं, वचन पिता का ले जा रहा
पुत्र धर्म है आज्ञा पालन, इसके बिना नहीं रह सकता
धर्म, अर्थ, काम के दाता, माता-पिता प्रत्यक्ष देवता
पिता की सेवा ही मानव के, कल्याण को प्राप्त कराती
नहीं सत्य, दान, न यज्ञ, मिल जाता सब कुछ इससे ही
माता-पिता की सेवा करके, मिल सकते हैं लोक सभी
यही सनातन धर्म है सुंदर, पालन करूंगा इसका ही
‘मैं वन में निवास करूंगी’, ऐसा तुमने किया है निश्चय
बदल गया विचार अब मेरा, चलोगी तुम भी दंडकारण्य
करो आचरण धर्म का अब, देता वन जाने की आज्ञा
दोनों कुलों के है योग्य यह, सुंदर निश्चय है तुम्हारा
वनवास के जो योग्य हैं, दान आदि अब कर्म करो
ब्राह्मणों को रत्न आदि, भोजन दो भिक्षुओं को
बहुमूल्य आभूषण, वस्त्र, जो भी हो सुंदर सामग्री
दान करो या उन्हें बाँट दो, वस्तुएं मेरी और तुम्हारी
स्वामी ने स्वीकार किया है, जान के सीता हुईं प्रसन्न
जुट गयीं शीघ्र दान देने में, सभी वस्तुएं, धन व रत्न
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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