श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः
श्रीराम और लक्ष्मण का संवाद, श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण का सुह्रदों से
पूछकर और दिव्य आयुध लाकर वनगमन के लिए तैयार होना, श्रीराम का उनसे ब्राह्मणों को
धन बांटने का विचार व्यक्त करना
सीता और राम के मध्य, बात
चल रही थी जिस क्षण
रघुकुल को सुख देने वाले,
पहुँच गये थे वहाँ लक्ष्मण
दोनों का संवाद सुना जब,
मुखमंडल अश्रु से भीगा
भाई के विरह का शोक, असह्य
अब उन्हें हो उठा
दोनों पैर राम के पकड़े,
व्रतधारी राम से बोले
अनुसरण मैं भी करूँगा, आप यदि
वन को जा रहे
वन्यजीव हैं जहाँ विचरते,
कलरव पक्षीगण करते
भ्रमण कीजियेगा मेरे संग,
भ्रमरों से गुंजित वन में
बिना आपके नहीं चाहता,
स्वर्ग लोक अथवा अमरता
ऐश्वर्य सम्पूर्ण लोक का,
पाने की इच्छा न रखता
रामचन्द्र ने जब समझाया,
मना किया उनको जाने से
किन्तु न मानी उनकी बात,
पुनः लक्ष्मण यह बोले
अपने साथ मुझे रहने की,
पहले से ही दी आज्ञा
क्यों रोकते अब मुझको, आखिर
क्या कारण इसका
ऐसा कहकर वीर लक्ष्मण, खड़े
हुए राम के आगे
हाथ जोड़कर की याचना, कहे
वचन राम ने उनसे
सन्मार्ग में चलने वाले, लक्ष्मण
तुम मेरे स्नेही हो
प्राणों सम प्रिय हो मुझको,
आज्ञापालक और सखा हो
तुम भी चल दोगे यदि वन को,
कौन करेगा माँ की सेवा
महाराज अब विवश हुए हैं,
कैकेयी ने उनको बाँधा
कैकेयी भी राज्य को पाकर,
सौतों से खुश नहीं रहेगी
भरत भी हैं उसके आधीन,
माँएं किस आश्रित रहेंगी
इसीलिए रह यहीं यदि, पालन
करोगे कौशल्या का
मेरे प्रति प्रेम प्रकटेगा,
अनुपम धर्म प्राप्त भी होगा
मर्म समझते थे लक्ष्मण,
मधुर स्वरों में कहा राम से
दोनों को भरत पूजेंगे, संशय
नहीं, आपके प्रभाव से
पाकर इस उत्तम राज्य को, यदि
कुमार्ग पर भरत चलेंगे
दंडित मैं करूंगा उनको, यदि
माओं की रक्षा न करेंगे
किन्तु समर्थ हैं माँ
कौशल्या, मुझ जैसों का पालन करने में
भरण हेतु निज आश्रितों के, सहस्त्र
गाँव हैं उन्हें मिले
अतः बना लें मुझे अनुगामी, तब
कृतार्थ मैं हो जाऊंगा
धर्म की इसमें नहीं है हानि,
सिद्ध प्रयोजन आपका होगा
धनुष धार, खंती लेकर, मार्ग
दिखाता मैं चलूँगा
फल-मूल प्रतिदिन लाकर, हवन
सामग्री भी लाऊँगा
पर्वत शिखरों पर जब आप,
विदेह कुमारी संग विचरेंगे
सभी कार्य मैं पूर्ण
करूंगा, सोते-जगते सदा आपके
हुए प्रसन्न राम यह सुनकर,
बोले, जाओ अनुमति लेने
माता व सुह्रदों से मिलकर,
वन यात्रा के बारे में
राजा जनक के महायज्ञ में,
दिव्य धनुष जो दिए वरुण ने
दिव्य कवच, तथा तरकस भी, खड्ग
दमकते हुए सूर्य से
रखे हैं आचार्य के घर में,
दिव्यास्त्र वे सत्कार पूर्वक
शीघ्र उन्हें तुम लेकर आओ,
गये लक्ष्मण आज्ञा पाकर
सुहृदों की लेकर अनुमति, वन
जाने को तैयार हो गये
मुनि वशिष्ठ के यहाँ से लाकर,
राम को आयुध सौंप दिए
हो प्रसन्न तब कहा राम ने,
उचित समय पर तुम आये
मेरा जो यह धन है इसको, बांटना
चाहूँ साथ तुम्हारे
भक्तिभाव से युक्त जो ब्राह्मण,
मेरे पास रहा करते
धन बांटना सबको चाहूँ, अन्य
सभी जो शेष रह गये
ब्राह्मणों में जो श्रेष्ठ
अति हैं, लाओ गुरु पुत्र सुयज्ञ को
उनका व सब आश्रितों का, कर
सत्कार मैं जाऊं वन को
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इकतीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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