श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
कौसल्या का श्रीराम की वनयात्रा के लिए मंगलकामनापूर्वक स्वस्तिवाचन करना और
श्रीराम का उन्हें प्रणाम करके सीता के भवन की ओर जाना
पूर्वकाल में विनता माँ ने, गरुड़ के हित जो कृत्य किया था
मंगल वही प्राप्त हो तुमको, अमृत वह लाने वाला था
माता अदिति का आशीष, अमृत की उत्पत्ति काल में
दैत्यहंता इंद्र को मिला, तुमको भी वह सुलभ हो सके
तीन पगों को भू पर धरते, मंगलाशंसा पायी विष्णु ने
प्राप्त वही मंगल हो तुमको, शुभकारी हों सभी दिशाएँ
इस प्रकार आशीष दिया, माता ने फिर तिलक लगाया
रक्षा के उद्देश्य से औषधि, विशल्यकरणी को बांध दिया
सभी मनोरथ सिद्ध करे जो, मन्त्र जाप कर उसको बांधा
ऊपर से खुश दिखकर माँ ने, दुःख को भीतर छुपा लिया
वाणी मात्र से पढ़े मन्त्र तब, पुत्र के मस्तक को सूंघा
लगा हृदय से फिर राम को, मंगलकारी वचन कहा
सुखपूर्वक वन को जाओ, रोगरहित वापस लौटोगे
राजमार्ग पर तुम्हें देखकर, दुःख मेरे सब मिट जायेंगे
हर्षजनित उल्लास मिलेगा, वन से लौटे तुम्हें देखकर
चाँद पूर्णिमा का हो जैसे, देखूंगी उल्लसित होकर
राज सिंहासन पर बैठोगे, पुनः तुम्हारा दर्शन होगा
अब जाओ, पुनः लौटकर, राजोचित फिर वर्तन होगा
मंगल वस्त्राभूषण धर तब, पूर्ण कामना सीता की करना
चिर काल तुम्हारे हित की, मुझसे पूजित करें कामना
इस प्रकार कौसल्या माँ ने, अश्रु भर कर नयनों में
स्वस्ति वाचन कर्म किया, उन्हें लगाया निज उर से
की प्रदक्षिणा जब राम की, राम ने भी प्रणाम किया
सीताजी के महल की तरफ, शोभित हो प्रस्थान किया !
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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