Thursday, January 14, 2016

विलाप करती हुई कौसल्या का श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए आग्रह करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

चतुर्विंशः सर्गः

विलाप करती हुई कौसल्या का श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए आग्रह करना तथा पति की सेवा ही नारी का धर्म है, यह बताकर श्रीराम का उन्हें रोकना और वन जाने के लिए उनकी अनुमति प्राप्त करना

कौसल्या ने देखा जब यह, वन जाने को तत्पर राम
अश्रुपूर्ण गद्गद् वाणी में, किये वचन तब यह उच्चार

कभी नहीं दुःख देखा जिसने, प्रियवादी दशरथ नन्दन
धर्मात्मा पुत्र वह मेरा, कैसे करेगा वन में विचरण

रहेगा कैसे ? दास भी जिसके, स्वादिष्ट अन्न हैं पाते
दाने बीन उच्छवृत्ति से, कंदमूल फल खाकर वन में

कौन भला विश्वास करेगा, किसको भय नहीं होगा सुन
वनवास राम को मिलता ?, राजा का प्रिय सद्गुण सम्पन्न !

निश्चय ही है दैव महान, सुख-दुःख का देने वाला
उसी के प्रभाव में आकर, ऐसा निश्चय कर डाला

किन्तु पुत्र, बिछुड़ कर तुमसे, शोक मुझे जला डालेगा
जैसे दावानल ग्रीष्म में, सूखे ईंधन को भस्म करेगा

शोकाग्नि प्रकटी अंतर में, विरह की वायु इसे बढ़ाती
दुःख ही ईंधन इसमें बनता, आँसू ही घी की आहूति

उच्छ्वास ही धुआं है मानो, कैसे तुम वापस आओगे
चिंता जन्म देती अग्नि को, प्रतिक्षण इसे बढ़ाती श्वासें

तुम्हीं हो जल जो इसे बुझाये, यह अन्यथा जला ही देगी
धेनु-वत्स सी चलूंगी मैं भी, जाओगे तुम जहाँ कहीं भी

कहा राम ने, मैं वन जाता, कैकेयी विपरीत पिता के
तुम भी यदि उन्हें त्यागोगी, पिता न जीवित रह पाएंगे

अति क्रूरतापूर्ण कर्म है, नारी के लिए त्याग पति का
मन में ऐसी बात न लाओ, सत्पुरुषों ने की है निंदा

सेवा करो तुम महाराज की, यही सनातन धर्म कह रहा
श्रीराम की बात सुनी जब, शांत हो गयीं तब कौसल्या

ऐसा ही होगा पुत्र अब, हामी भर दी जब माता ने
हम दोनों का यही कर्त्तव्य, पुनः कहा था श्रीराम ने 

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति .

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  2. मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ...

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  3. संगीताजी व कविता जी, स्वागत व आभार !

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