श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
एकोनषष्टितमः सर्गः
विश्वामित्र का त्रिशंकु को आश्वासन देकर उनका यज्ञ कराने के लिए ऋषि-मुनियों
को आमंत्रित करना और उनकी बात न मानने वाले महोदय तथा ऋषिपुत्रों को शाप देकर नष्ट
करना
शतानंद ने कथा बढ़ायी, विश्वामित्र भर गये दया से
चांडाल को प्राप्त हुआ जो, देख स्वरूप त्रिशंकु के
वत्स ! तुम्हारा स्वागत है, हो धार्मिक यह जानता
डरो नहीं, शरण मैं दूंगा, यज्ञ तुम्हारा सम्पन्न होगा
बनें सहायक जो यज्ञ में, आमंत्रित होंगे वे ऋषिवर
सदेह स्वर्ग लोक जाओगे, इस नवीन रूप को लेकर
तुम जो मेरी शरण में आये, मानो स्वर्ग हो गया तुम्हारा
ऐसा कहकर विश्वामित्र ने, दी पुत्रों को समुचित आज्ञा
लगे जुटाने यज्ञ सामग्री, शिष्यों को ये बात कही
बुला लाओ ऋषि-मुनियों को, हों जिनमें वसिष्ठ पुत्र भी
जिसने यह संदेश सुना हो, पर आने में न हो उत्सुक
यदि करे अवहेलना कोई, आकर सब विवरण देना तुम
आज्ञा मान गये तब उनकी, शिष्य चार दिशाओं में
आने लगे ब्रह्मवादी मुनि, शिष्य भी लौटकर आये
गुरूदेव सुन संदेश आपका, आये ब्राह्मण सब देशों से
वसिष्ठ पुत्र व ऋषि महोदय, तत्पर नहीं
हैं आने में
मुनिश्रेष्ठ ! वसिष्ठ पुत्रों ने, क्रोध भरी वाणी में कहा
जो चांडाल स्वयं है राजा, क्षत्रिय है आचार्य यज्ञ का
देवर्षि अथवा ब्राह्मण भी, हविष्य करेंगे कैसे ग्रहण
स्वर्ग नहीं वे जा पाएंगे, चांडाल का खाकर अन्न
नेत्र क्रोध से लाल हुए तब, रोषपूर्वक तब बोले
भस्मीभूत दुरात्मा होंगे, दोषारोपण जो करते
दोष और दुर्भाव रहित भी, उग्र तपस्या में रत हूँ मैं
कालपाश से बंधकर वे, यमलोक में जा पहुंचेंगे
मुर्दों की रखवाली करती, मुष्टिक जाति में वे जन्में
विकृत व विरूप हुए वे, इन लोकों में ही विचरें
महोदय भी होकर निन्दित, जन्म ले निषाद योनि में
महामुनि विश्वामित्र तब, कहकर ऐसा चुप हो गये
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteस्वागत व आभार, कैलाश जी
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