श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
एकषष्टितम सर्गः
विश्वामित्र की पुष्कर तीर्थ में तपस्या तथा राजर्षि अम्बरीश का ऋचीक के मध्यम
पुत्र शुनः शेप को यज्ञ पशु बनाने के लिए खरीदकर लाना
यज्ञ समाप्त हुआ जानकर, लौट रहे थे ऋषि वनवासी
कहा मुनि ने उनके तप में, दक्षिण में विघ्न है भारी
पश्चिम दिशा में ब्रह्मा जी के, पुष्कर तीर्थ तीन स्थित हैं
वहीं तपस्या करेंगे अब हम, तपोवन वह अति सुखद है
ऐसा कह मुनि महातेजस्वी, चले गये तीर्थ पुष्कर में
लग गये दुर्जय तप करने में, फल-मूल का भोजन करके
इन्हीं दिनों अयोध्या के राजा, अम्बरीष यज्ञ करते थे
वे जब रत थे यज्ञ क्रिया में, यज्ञ पशु को इंद्र ले गये
कहा पुरोहित ने, पशु खोया, नृप ! तुम्हारी दुर्नीति से
जो करे न रक्षा यज्ञ पशु की, दोष नष्ट उसे कर देते
जब तक हो आरम्भ कर्म का, उसके पहले पशु ले आओ
खोज कराओ, नहीं मिले तो, पुरुष पशु को क्रय कर लाओ
पुरुष श्रेष्ठ अम्बरीश ने यह, ध्यान दे किया श्रवण
एक हजार गौएँ देकर, किया पुरुष का अन्वेषण
देश-देश, जनपद, नगर, कई, वनों, आश्रम में खोजा
भृगु तुंग पर्वत पर पहुँचे, मुनि ऋचीक को तब देखा
पत्नी और पुत्र के साथ, बैठे हुए अति शोभित थे
अम्बरीश ने किया प्रणाम, फिर उनसे ये वचन कहे
पा न सका कहीं यज्ञ-पशु, भ्रमण किया सारे देशों में
एक पुत्र को मुझे बेच दें, लेकर एक लाख गौएँ
ऐसा कहने पर राजा के, उत्तर दिया ऋचीक मुनि ने
बड़े पुत्र को किसी तरह भी, नहीं बेच सकता हूँ मैं
छोटा पुत्र मुझे अति प्रिय है, कहा पुत्रों की माता ने
बड़े पुत्र यदि प्रिय पिता को, छोटे प्रिय हैं माताओं के
मझला पुत्र शुनः शेप बोला, अपने साथ मुझे ले चलें
मैं ही हूँ बेचने योग्य, माता-पिता की दृष्टि में
एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा दी, सुन अम्बरीष प्रसन्न हुए
एक लाख गौएँ भी देकर, शुनः शेप को लिए चले
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य
के बालकाण्ड में एकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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