Thursday, December 4, 2014

शाप से चांडाल हुए त्रिशंकु का विश्वामित्रजी की शरण में जाना

अष्ट पञ्चाश सर्गः

वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों का त्रिशंकु को डांट बताकर घर लौटने के लिए आज्ञा देना तथा उन्हें दूसरा पुरोहित बनाने के लिए उद्यत देख शाप-प्रदान और उनके शाप से चांडाल हुए त्रिशंकु का विश्वामित्रजी की शरण में जाना


कुपित हुए वसिष्ठ पुत्र तब, सुना वचन त्रिशंकु का
मना किया जब गुरू ने तुमको, क्यों आये हो कर अवज्ञा

परमगति हैं मुनि वसिष्ठ, नहीं अन्यथा उनकी बात
इक्ष्वाकुवंशी सब राजा, उनसे ही पाते हैं मार्ग

कहा असम्भव जिस यज्ञ को, कैसे सम्भव होगा हमसे
हो नादान अभी तुम राजा, लौट जाओ नगर को अपने

ऋषि वसिष्ठ करा सकते हैं, हर यज्ञ तीनों लोकों का
बिना सम्मति उनकी हम करके, कैसे करें अनादर उनका

गुरूपुत्रों का वचन सुना जब, राजा ने ये वचन कहे
ठुकराया था मुनि वसिष्ठ ने, आप भी विनती नहीं सुन रहे

हो कल्याण सदा आपका, शरण अन्य की मैं जाऊँगा
वचन सुना जब राजा का यह, गुरूपुत्रों ने शाप दिया

हो जायेगा तू चांडाल !, ऐसा कह वे गये आश्रम
रात बीतते ही त्रिशंकु पर, हुआ था वह शाप फलित

रंग हो गया तन का नीला, नीला वस्त्रों का रंग भी
छोटे केश, हुए रुक्ष अंग, लिपट गयी राख चिता की

लोहे के गहने भी प्रकटे, यथास्थान विभिन्न अंगों में
भाग गये पुरवासी, मंत्री, देखा जब उन्हें इस रूप में

धीर स्वभाव वे नरेश तब, जलते थे चिंता की आग में
तपोधन विश्वामित्र मुनि की, गये शरण में वे अकेले,

विश्वामित्र ने देखा उनको, जीवन जिनका हुआ था निष्फल
करुणा भरी हृदय में उनके राजा से बोले, हुए द्रवित

हो कल्याण तुम्हारा राजा, बोलो किस काम से आये
शाप ग्रसित चांडाल हुए हो, वीर अयोध्या के नरेश हे !

विश्वामित्र की बात सुनी जब, मुनि से तब कहा नरेश ने
ठुकरा दी है मेरी कामना, गुरू वसिष्ठ व गुरू पुत्रों ने

मिली नहीं अभीष्ट वस्तु भी, हुआ हूँ भागी मैं अनर्थ का
इसी देह से स्वर्ग को जाऊं, इतना ही मैंने चाहा था

यज्ञ सैकड़ों किये हैं मैंने, किन्तु न कोई फल पाया
मिथ्या वचन कभी न बोले, नहीं भविष्य में कहूँगा

प्रजाजनों की रक्षा की है, सदाचार, शील भी पाला
यज्ञ ही करना चाहता था, धर्म हेतु ही यह उपक्रम था

गुरूवर नहीं संतुष्ट हुए पर, आर्त हुआ, शरण मांगता
पुरुषार्थ से भाग्य प्रबल है, ऐसा ही प्रतीत है होता

कृपा कीजिये मुझपर आप, कोई नहीं सिवा आपके
पलट सकेंगे यह दुर्दैव, आप ही अपने पुरुषार्थ से


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ.



2 comments:

  1. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

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  2. स्वागत व आभार कविता जी !

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