श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः
गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग
महादेव जब रत थे तप में, देव गये ब्रह्मा के पास
हो सेनापति कौन देवों का, लेकर अंतर में यह आस
अग्नि सहित इंद्र आदि ने, ब्रह्मा को प्रणाम किया
देवों को सुख देने वाले, राम ! सुनो आगे की कथा
पूर्वकाल में जिन शंकर ने, सेनापति प्रदान किया था
उमा सहित तप में रत हैं वे, आप हैं विधि-वधान के ज्ञाता
जो कर्त्तव्य लोकहित में हो, उसे पूर्ण करेंगे आप
परम आश्रय आप हमारे, देवों की सुनेंगे बात
मधुर वचन बोले तब ब्रह्मा, पितामह हैं जो त्रिलोक के
दी सांत्वना देवों को तब, शाप दिया है तुम्हें उमा ने
सत्य सिद्ध होगा वह शाप, तुम सन्तान नहीं पा सकते
ये उमा की बड़ी बहन हैं, आकाश गंगा इन्हें कहते
शंकर के उस तेज को अग्नि, इनके गर्भ में करें स्थापित
एक पुत्र तब होगा उत्पन्न, सेनापति बनेगा निश्चित
गिरिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं, पुत्र समान ही होगा वह
कोई संशय नहीं हैं इसमें, प्रिय लगेगा
उमा को यह
कृतकृत्य हुए सब देव, ब्रह्मा जी का वचन सुना जब
किया प्रणाम सभी देवों ने, और भक्ति से उनका पूजन
विविध धातुओं से अलंकृत, उत्तम पर्वत है कैलाश
वहीं गये सब देव, अग्नि को, दिया परम उत्तम यह काज
देव हुताशन ! देव कार्य यह, सिद्ध करें आप इसको
गंगा जी में करें स्थापित, रूद्र के उस महातेज को
हामी भरकर तब देवों से, अग्निदेव बोले गंगा से
देवी, धारण करें गर्भ यह, देवों का हित है इसमें
दिव्य रूप धरा गंगा ने, अग्निदेव की बात सुनी जब
रूद्र तेज को वहाँ बिखेरा, देख रूप-वैभव यह लखकर
सब ओर से गंगा जी को, अभिषिक्त किया रूद्र तेज से
सारे स्रोत पूर्ण हुए तब, गंगा जी के, उस तेज से
हूँ असमर्थ इसे धरने को, तब गंगा ने कहा अग्नि से
इसकी आंच से जलती हूँ मैं, व्यथित हुई चेतना इससे
हविष्य को जो भोग लगाते, अग्निदेव ने कहा तब उनसे
स्थापित करें इस गर्भ को, हिमालय के पार्श्व भाग में
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