श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः
देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत करना तथा उमा देवी का देवताओं
और पृथ्वी को शाप देना
तब उनके ऐसा कहने पर, बोले थे शिव से यह
देव
पृथ्वीदेवी करेंगी धारण, क्षुब्ध हुआ जो गिरेगा तेज
देवों का जब सुना कथन यह, महादेव ने छोड़ा तेज
वन, पर्वत संग सारी धरती, हुई व्याप्त हो गयी सतेज
‘वायु के सहयोग से इसको’, अग्निदेव से बोले देव
धारण कर लो भीतर अपने, शिव का है यह महातेज
अग्नि से जब व्याप्त हुआ, परिणत हुआ श्वेत पर्वत में
सरकंडों का दिव्य वन भी, प्रकट हुआ उस प्रदेश में
सूर्य और अग्नि सम हुआ, तब कार्तिकेय का प्रादुर्भाव
ऋषियों सहित सभी देवों में, बढ़ी प्रसन्नता, भक्तिभाव
पूजन किया उमा-शिव का, पर भरी क्रोध में गिरिजानन्दिनी
रोषपूर्वक शाप दिया तब, देवताओं व पृथ्वी को भी
पुत्र-प्राप्ति की इच्छा थी, रोक दिया देवों तुमने
होंगी पुत्रहीन पत्नियाँ, रहो अयोग्य पुत्र पाने में
पृथ्वी को भी शाप दिया तब, बहुतों की भार्या होगी
नहीं रहेगा एक सा रूप, भूमे ! तेरी खोटी बुद्धि
मेरे क्रोध से कलुषित होकर, तू भी वह सुख न पायेगी
पुत्र जनित जो सुख है सुंदर, अनुभव न उसका जानेगी
देवों को जब देखा पीड़ित, उमादेवी के शाप से शिव ने
पश्चिम दिशा की ओर बढ़ गये, हिमालय के उत्तर भाग में
हुए तपस्या में रत दोनों, उस पर्वत के एक शिखर पर
यह विस्तृत वृतांत कहा, अब सुनो कथा गंगा की रघुवर
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छत्तीसवां
सर्ग पूरा हुआ.
जीवन दर्शन, आध्यात्म और सार्थक चिंतन
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
सादर
आग्रह है----
और एक दिन
सुन्दर कार्य किया है आपने
ReplyDeleteबधाइयां
ज्योति खरे जी व रामकुमार जी, स्वागत व आभार !
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