श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः
देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत करना तथा उमा देवी का देवताओं
और पृथ्वी को शाप देना
मुनि की बात समाप्त हुई जब, किया प्रेम से अभिनन्दन
धर्मयुक्त कथा उत्तम यह, बोले दोनों राम, लक्ष्मण
हे विस्तृत वृतांत के ज्ञाता, अब विस्तार से हमें
सुनाएँ
गिरिराज हिमवान की पुत्री, गंगा की महिमा बतलाएं
दिव्यलोक था माँ गंगा का, मानव लोक में कैसे आयीं
तीन मार्ग में हुईं प्रवाहित, ‘त्रिपथगा’ कैसे कहलायीं
हे धर्मज्ञ ! तीन धाराएँ, तीन लोक में क्या करतीं
रामचन्द्र ने जब पूछा यह, मुनि ने तब यह कथा कही
उमा गयीं नव वधू रूप में, नीलकंठ भगवान निकट जब
क्रीडा-विहार किया आरम्भ, बीत गये सौ दिव्य वर्ष तब
महादेव को देवी के गर्भ से, पुत्र न कोई प्राप्त हुआ पर
प्रयत्न किया रुक जाये क्रीडा, ब्रह्मा आदि देवों ने तब
इतना काल बीत जाने पर, रूद्र तेज से जो जन्मेगा
होगा वह निश्चित ही वीर, कौन तेज को सहन करेगा
यह विचार सब देव गये तब, शिव को कर प्रणाम बोले
कृपा करें आप देवों पर, लोक के हित में तत्पर रहते
क्रीडा से हो निवृत आप, करें तपस्या संग उमा के
सहन नहीं कर पाएंगे ये, तेज आपका लोक यहाँ के
निज तेज को सबके हित में, स्वयं में ही धारण अब कर लें
लोकों की होगी रक्षा तब, न इनका विनाश कर डालें
स्वीकार किया उनका अनुरोध, देवों की यह बात सुनी जब
उमासहित तेज धारूंगा, पृथ्वी आदि हों शांत अब
किन्तु यदि हो जाये स्खलित, हो क्षुब्ध मेरा यह तेज
कौन उसे धारेगा, कहें, देवों से पूछते महादेव
स्वागत व बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteजय हो
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@भूली हुई यादों
atiutam-***
ReplyDeleteमीना जी, प्रसन्न जी, व आदित्य जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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