श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
त्रयसि्ंत्रशः सर्गः
राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमा शीलता की प्रंशसा, ब्रह्मदत्त
की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह
वही ब्रह्मदत्त राजा होकर, काम्पिल्या नगरी में रहते
थे सम्पन्न लक्ष्मी से वैसे, जैसे इंद्र स्वर्ग में बसते
तब नरेश कुशनाभ ने उनको, कीं समर्पित वे कन्यायें
ब्रह्मदत्त ने किया विवाह, क्रमशः उनसे वे हर्षाये
स्पर्श हुआ उनके हाथों का, कुब्जदोष से हुईं रहित वे
उत्तम शोभा से सम्पन्न भी, स्वस्थ अति प्रफ्फुलित वे
वातरोग के रूप में आये, अब वायुदेव ने छोड़ दिया
कुशनाभ थे जान यह हर्षित, आदर सहित विदा किया
गन्धर्वी सोमदा ने भी, स्वागत किया यथोचित उनका
एक-एक कर हृदय से लगाया, अभिनन्दन किया सबका
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तैतीसवां सर्ग
पूरा हुआ.
संवेदना से लवरेज प्रस्तुति।अप्रतिम । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteखूबसूरत शब्द सामर्थ्य बेहतरीन कार्य !! बधाई आपको
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प्रेम सरोवर जी व सतीश जी, स्वागत व आभार !
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