श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
त्रयसि्ंत्रशः सर्गः
राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमा शीलता की प्रंशसा, ब्रह्मदत्त
की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह
सुन राजा कुशनाभ का वचन, कन्याओं ने कहा प्रणाम कर
धर्म पर दृष्टि नहीं थी उनकी, संचारी सर्वत्र वायु देव
उनसे हमने यही कहा था, देव ! हो कल्याण आपका
पिता हमारे विद्यमान हैं, उनसे कह करें वरण हमारा
किन्तु न मानी बात उन्होंने, मन पाप से बंधा हुआ था
धर्मयुक्त थी बात हमारी, फिर भी हमको दी है पीड़ा
राजा ने जब बात सुनी यह, उतम कन्याओं को बोले
उत्तम कार्य किया है तुमने, क्षमा महापुरुष ही करते
स्त्री हो या पुरुष सभी का, आभूषण है क्षमा का गुण
कुल की मर्यादा का पालन, कामभाव से मुक्त रही तुम
देवों के लिए भी दुष्कर, तुम सब में है वही सहिष्णुता
क्षमा दान है, सत्य भी है वह, यज्ञ, यश और धर्म क्षमा
तब देवतुल्य कुशनाभ ने, दी आज्ञा भीतर जाने की
किया विचार मंत्रियों के संग, चर्चा की उनके विवाह की
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, गूगल और 'निराला' - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
Deleteएक नया ही प्रसंग पता चला ....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा .... सस्नेह !
सुंदर सस्नेह ! महा शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteसुन्दर कथा सार लय ताल बद्ध पैटर्न लिए।
ReplyDeleteनिवेदिता जी, संजय जी तथा वीरू भाई स्वागत व आभार !
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