श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
एकविंश सर्ग
विश्वामित्रके रोषपूर्ण वचन तथा वसिष्ठ का राजा
दशरथ को समझाना
श्रीराम व मुनिवर दोनों, धर्म की हैं साक्षात् मूर्ति
बढ़े-चढ़े ज्ञान, विद्या में, तप भंडार विशाल अति
चर-अचर प्राणियों सहित, त्रिलोक में अस्त्र जो ज्ञात
ज्ञान इन्हें है उन सबका, केवल मैं इससे परिचित
देव, ऋषि, गन्धर्व, राक्षस, किन्नर, यक्ष, बड़े नाग हों
ज्ञान भले हो और विषय का, न जानें इनके प्रभाव को
प्रायः अस्त्र सभी पुत्र हैं, प्रजापति कृशाश्व के धार्मिक
पूर्वकाल में दिये मुनि को, जब वे थे राज्य के शासक
माँ हैं उनकी दक्ष पुत्रियाँ, सभी महान शक्तिशाली हैं
परम प्रकाशमान अस्त्र सब, विजय दिलाने वाले भी है
‘जया’ नाम की इक पुत्री ने, वर पाकर पुत्रों को पाया
प्रकट हुए हैं रूपरहित वे, वध हेतु असुर सेना का
‘सुप्रभा’ ने जन्म दिया है, जिन्हें बुलाते ‘संहार’ हैं
अति दुर्जय, बलिष्ठ अति वे, संख्या में वे पचास हैं
धर्मज्ञ कुशिका नन्दन ये, उन अस्त्रों को पूर्ण जानते
जो उपलब्ध नहीं अब तक, शक्ति है, उत्पन्न कर दें
भूत, भविष्य नहीं छिपा है, मुनिवर से हे रघुनंदन !
हैं महातेजस्वी, महायशस्वी, भेजें कौशल्या नंदन
स्वयं सक्षम वध करने में, किन्तु चाहें राम कल्याण
इसीलिए याचना करते, ऐसा ही है विधि विधान
रजा दशरथ हुए प्रसन्न, वचन सुने जब मुनि वशिष्ठ के
बुद्धि से विचार किया जब, अनुकूल लगा यह कृत्य रूचि के
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में इक्कीसवां
सर्ग पूरा हुआ.
ॐ शान्ति
ReplyDeleteलाज़वाब कथात्मक शैली में भाव और अर्थ सौन्दर्य से अप्रतिम रचना .
बेहतरन ... भाव प्रधान .. सरल भाषा में लिखा काव्य ...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDelete