Wednesday, July 17, 2013

राजा दशरथ का स्वस्तिवाचन पूर्वक राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

द्वाविंशः सर्ग

राजा दशरथ का स्वस्तिवाचन पूर्वक राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजना, मार्ग में उन्हें विश्वामित्र की बला-अतिबला नामक विद्या की प्राप्ति

सुने वचन वशिष्ठ मुनि के, दशरथ अति प्रसन्न हुए
लक्ष्मण सहित राम को बुलाया, मिल सबने स्वस्ति वचन कहे

किया राम को अभिमंत्रित, मंगल सूचक कई मन्त्रों से
मंगल काज किये यात्रा हित, माता-पिता व गुरु वशिष्ठ ने

पुत्र का मस्तक सूँघ प्रेम से, मुनि को सौंप दिया राजा ने
धूल रहित सुख पवन बही तब, पुष्पवृष्टि की देवताओं ने

बज उठीं थीं देव दुन्दुभियाँ, शंख, नगाड़े बजे उसी क्षण
आगे-आगे राम चले थे, पीछे थे सौमित्र लक्ष्मण

तरकस बंधे पीठ पर थे, हाथों में थे धनुष सुशोभित
तीन फनों वाले सर्प दो, ज्यों चले आ रहे हों हर्षित

था स्वभाव उनका, उदार, अनुपम कांति से प्रकाशित
वे अनिन्द्य सुंदर राजपुत्र, कर रहे थे शोभा प्रसारित

ब्रह्मा जी के पीछे-पीछे, ज्यों अश्विनी कुमार चलते हों
पीछे-पीछे थे मुनिवर के, राम-लक्ष्मण वीर वे दोनों

वस्त्र और आभूषण सुंदर, दस्ताने हाथों में पहने
कटि प्रदेश में तलवारें थीं, श्री अंग बड़े मनोहर थे

महातेजस्वी, श्रेष्ठवीर वे, उद्भासित अद्भुत थी कांति
महादेव के पीछे ज्यों, स्कन्द और विशाख की भांति


4 comments:


  1. पुत्र का मस्तक सूँघ प्रेम से, मुनि को सौंप दिया राजा ने
    धूल रहित सुख पवन बही तब, पुष्पवृष्टि की देवताओं ने

    बज उठीं थीं देव दुन्दुभियाँ, शंख, नगाड़े बजे उसी क्षण
    आगे-आगे राम चले थे, पीछे थे सौमित्र लक्ष्मण
    भाषिक सौन्दर्य से संसिक्त कथा वृत्तांत .सुन्दर मनोहर .ओम शान्ति

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  2. Anita ने कहा…
    इस पर कुछ प्रकाश डालिए कि निराकारी दुनिया का अनुभव कैसे होता है...आभार इस ज्ञान के लिए.



    वीरुभाई :

    अनिता दीदी सा !
    यह परमात्मा के साथ रूह -रिहान (बातचीत )की स्थिति होती है मैं निरंतर इस नशे में रहूँ -ये शरीर मेरा हार्ड वेयर है य़े मन और बुद्धि मेरे सर्वर (server )हैं .देह कभी नहीं कहती ये मेरी आत्मा है संवाद भी नहीं करती जब पंछी (आत्मा )उड़ जाता है देह छोड़ कर .देह तो जड़ है लेकिन आत्मा रुपी चालक की यही गाड़ी,इसी की मार्फ़त आत्मा सब कुछ करती है .
    मैं निरंतर यह अभ्यास करूँ-इस देह से न्यारी (अलग )मैं एक निराकार आत्मा हूँ ज़्योति की पवित्रता मेरा स्वरूप हूँ ज्योति बिंदु रूप हूँ मैं आत्मा .उस परमपिता की संतान हूँ जो शान्ति का सागर है मैं आत्मा प्रेम स्वरूप हूँ उस परमात्मा की संतान हूँ जो प्रेम का सागर है मैं आत्मा आनंद स्वरूप हूँ उस परम आत्मा ज्योतिर्लिन्ग्म की आध्यात्मिक संतान हूँ उसी के स्वरूप ज्योति बिंदु रूप में हूँ जो आनंद का सागर है .अ -शरीरी है अजन्मा है सात समुन्दरों की स्याही बना सारे जंगलों की कलम बना कर भी मैं उसके गुणों का बखान करूँ,तो कर न सकूँ।
    ये देह मेरा धर्म नहीं है, उपकरण है मैं देह भान ,देह अभिमान में क्यों रहूँ मैं आत्मा तो अ शरीरी हूँ ये देह तो मेरा वस्त्र है इसे मैंने अनेक बार बदला है कल्प कल्पान्तर में क़ोई पहली मर्तबा मैं आत्मा देह में नहीं आईंहूँ फिर इस अनित्य देह को मैं नित्य ,सनातन क्यों समझूं .सनातन तो मैं और मेरा परम पितापरमात्मा है जिसने मुझे ज्ञान का तीसरा नेत्र देकर काल (सृष्टि )के अनादि चक्र के आदि मध्य और अंत का ज्ञान कराया है मुझेअपना गोद लिया बच्चा बनाया है मैं आत्मा हर कर्म उसकी याद मैं करूँ।थेंक यु बाबा यही बातचीत बुद्धि को निराकारी दुनिया ब्रह्म लोक मैं ले आती है जहां मैं आत्मा अपने बाप से ज्ञान का प्रकाश लेती हूँ शक्ति लेती हूँ .सकाश लेती हूँ .वहि तो मेरा भी पर्मानेंट एड्रेस है .

    ॐ शान्ति








    ये देह मेरा धर्म नहीं है, उपकरण है मैं देह भान ,देह अभिमान में क्यों रहूँ मैं आत्मा तो अ शरीरी हूँ ये देह तो मेरा वस्त्र है इसे मैंने अनेक बार बदला है कल्प कल्पान्तर में क़ोई पहली मर्तबा मैं आत्मा देह में नहीं आईंहूँ फिर इस अनित्य देह को मैं नित्य ,सनातन क्यों समझूं .सनातन तो मैं और मेरा परम पितापरमात्मा है जिसने मुझे ज्ञान का तीसरा नेत्र देकर काल (सृष्टि )के अनादि चक्र के आदि मध्य और अंत का ज्ञान कराया है मुझेअपना गोद लिया बच्चा बनाया है मैं आत्मा हर कर्म उसकी याद मैं करूँ।थेंक यु बाबा यही बातचीत बुद्धि को निराकारी दुनिया ब्रह्म लोक मैं ले आती है जहां मैं आत्मा अपने बाप से ज्ञान का प्रकाश लेती हूँ शक्ति लेती हूँ .सकाश लेती हूँ .वहि तो मेरा भी पर्मानेंट एड्रेस है .
    ॐ शान्ति

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  3. सुंदर मनमोहक कथा
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें
    केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------

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  4. वीरू भाई व ज्योति जी,स्वागत व आभार !

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