Tuesday, January 22, 2013

राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्निकुंडसे प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 



पंचदशः सर्गः
ऋष्यश्रंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, देवताओं की प्रार्थना से ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ निकलना तथा भगवान विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना 


मुनियों सहित सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, देवता सब आए हैं
उसके वध की लिए आपकी, शरण मांगने आए हैं

शत्रु हंता देव ! आप ही, परमगति हम सब लोगों की
मानव का अवतार लीजिये, नष्ट हो सके देवताद्रोही

सुनकर इस स्तुति को तब, सर्व वन्दित विष्णु यह बोले
हो कल्याण आपका देवों, त्याग भय निश्चिन्त अब होलें

पुत्र, पौत्र, अमात्य मंत्री, सहित बांधवों के रावण को
युद्ध में हत करूँगा मैं, क्रूर, दुर्धर्ष उस राक्षस को

देवों, ऋषियों को अभय कर, पालन पृथ्वी का करूँगा  
तब ग्यारह हजार वर्षों तक, मनुष्यलोक में वास करूँगा

देवों का ऐसा वर देकर, विचार किया भगवान विष्णु ने
दशरथ के घर वे जन्मेंगे, स्वयं के चार स्वरूप बाँट के

तब देवों, ऋषियों ने कहा यह, सारे जग को दुःख से बचाएं
उस रावण का वध करके, पुनः चिरन्तन लोक में जाएँ
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पन्द्रहवां सर्ग पूरा हुआ.


षोडशः सर्गः

देवताओं का श्रीहरि से रावण वध के लिए मनुष्य रूप में अवतरित होने को कहना, राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्निकुंडसे प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना और उसे खाकर रानियों का गर्भवती होना

श्रेष्ठ देवताओं द्वारा जब, नियुक्त हुए प्रभु रावण वध हित
बन अनजान पूछते उनसे, किस उपाय से करूं यह कृत

देव बोले, अविनाशी प्रभु से, मानव रूप धरें जब आप
युद्ध करें उस क्रूर दैत्य से, आहत जिससे जग है आज

पितामह की लेकर अनुमति, तब विष्णु अन्तर्धान हुए
अग्निकुंड से तब दशरथ के, पुरुष विशाल इक प्रकट हुए

था प्रकाशित तन उसका, बली, महापराक्रमी लगता
काले अंग, लाल वस्त्र, सिंह समान वह गम्भीर था

शैल शिखर सा ऊँचा था वह, दिव्य आभूषण धारे था
चिकने केश, अग्नि सा वर्ण, हाथों में परात लिए था


1 comment:

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