श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
त्रिषष्टितम: सर्गः
राजा दशरथ का शोक और उनका कौसल्या से अपने द्वारा मुनिकुमार के मारे जाने का
प्रसंग सुनाना
दो ही घड़ी सोये
थे राजा, व्याकुलता से जाग पड़े
वन में जाने से
राम के, मन ही मन चिंता करते थे
इन्द्र्तुल्य
तेजस्वी नृप को, शोक ने ऐसे आ
दबाया
अंधकार राहु का
जैसे, छाकर दिनकर को ढक लेता
पत्नी सँग वन गये
राम जब, कोसल नरेश को स्मरण हुआ
कजरारे नेत्र
जिसके, कहूँ, कौसल्या को पाप पुराना
वनवास गये छठी
रात्रि थी, आधीरात उन्हें हुआ स्मरण
कौसल्या को लगे
बताने, पूर्व काल में किया
दुष्कर्म
शुभ-अशुभ नर जो
भी करता, सुख-दुःख उनसे ही पाता है
कल्याणी ! हे
भद्रे !, कर्म ही, हर्ष व शोक प्रदाता है
आरम्भ
में जो कर्मों की, लघुता, गुरुता नहीं देखता
लाभ-हानि या
गुण-दोष ही, वह बालक ही समझा
जाता
सुंदर पुष्प पलाश
का देख, मन ही मन यदि सोचे कोई
सुस्वादु और मनोहर होगा, इस वृक्ष का फल अवश्य ही
आम्र वाटिका काट यदि वह, पौध
पलाश की लगाके सींचे
पश्चाताप अति उसे होगा, फल पाकर
न अनुरूप आशा के
फल का ज्ञान नहीं रखता जो,
केवल कर्म किये जाता है
आम काट पलाश बोने सा, शोक
उसे फल पा होता है
आम्र वाटिका काट
यदि वह, पौध पलाश लगाके सींचे
पश्चाताप अति उसे
होगा, फल पा न अनुरूप आशा के
फल का ज्ञान नहीं
रखता जो, केवल कर्म किये जाता है
आम काट पलाश बोने
सा, शोक उसे फल पा होता है
काट आम के वन
मैंने, सींचे पलाश यही मानता
बुद्धि अति खोटी
है मेरी, फल पाकर अत्यधिक पछताता
पिता के जीवन काल
में जब, ख्याति मेरी फ़ैल गयी थी
राजकुमार धनुर्धर
था, बाण चलाता था शब्द वेधी
इसी ख्याति में
पड़कर मैंने, एक पाप कृत्य कर
डाला
इस महान पीड़ा के
रूप में, उसी कुकर्म का फल
पाया
यदि अज्ञान वश विष खाले, बालक को वही मार डालता
मोह, अज्ञान से किया कर्म, उसका फल ही पड़ा भोगना
जैसे कोई गंवार
मनुष्य, हो मोहित केवल फूल पर
वैसे ही मैं सुन
प्रशंसा, मोहित हुआ था इस विद्या पर
इससे पापकर्म बन
सकता, यह ज्ञान मुझे नहीं हुआ था
देवी, जब युवराज ही था
मैं, अभी विवाह नहीं हुआ था
राजा दशरथ का दुःख का ये कहता है कि फल का ज्ञान रख कर्म करना चाहिए । सच में ।
ReplyDeleteसही कहा है आपने अमृता जी, कर्म करने से पहले उसके फल की चिंता अवश्य करनी चाहिए.
ReplyDelete