श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पंचपञ्चाशः सर्गः
भरद्वाजजी का श्रीराम आदि के लिए स्वस्तिवाचन करके उन्हें चित्रकूट का मार्ग
बताना, उन सबका अपने ही बनाये हुए बेड़े से यमुनाजी को पार करना, सीताकी यमुना और
श्यामवट से प्रार्थना, तीनों का यमुना के किनारे के मार्गसे एक कोसतक जाकर वनमें
घूमना-फिरना, यमुनाजीके समतल तटपर रात्रिमें निवास करना
मंझधार में जब पहुंचे वे, कर
प्रणाम कहा सीता ने
पार जा रही इस बेड़े से, करें
कृपा हम सकुशल पहुँचें
हाथ जोड़कर सीताजी ने, यमुना
जी से की यह विनती
निर्विघ्न करें पूर्ण
प्रतिज्ञा, पति मेरे निज वनवास की
इक्ष्वाकुवंशी वीरों से,
पालित है जो पुरी अयोध्या
सकुशल लौट वहाँ हम आये,
करूंगी मैं आपकी पूजा
एक सहस्त्र गउओं का मैं,
आपके तट पर दान करूंगी
देवदुर्लभ पदार्थ सैकड़ों, सेवा
में अर्पित कर दूंगी
दक्षिण तट पर जा पहुंचे वे,
नदी को तीनों ने पार किया
तट पर वृक्ष सुशोभित जिसके,
सज्जित लहरों से जो यमुना
छोड़ वहीं तट पर बेड़े को,
श्यामलवट के निकट गये
कृपा करें, हे महावृक्ष !, कर
प्रणाम कहा सीता ने
वनवास का व्रत पूरा हो, सकुशल हम लौटें अयोध्या
दर्शन करें माताओं का, कहकर
की उसकी परिक्रमा
प्राणप्रिया सीता को देख, रहती
सदा उनकी आज्ञा में
लक्ष्मण से यह कहा राम ने, आगे-आगे
चलो इन्हें ले
जो जो फल, फूल यह मांगें, वे
सब इनको देते रहना
या अन्य कोई भी वस्तु, हो जिससे
प्रसन्न मन इनका
हर वृक्ष, झाड़ी को अथवा, जो
न कभी पहले देखी थीं
कुसुमित लता देख कर सीता, राम
से उनके विषय पूछतीं
भांति-भांति के पुष्प गुच्छ
या, वृक्षों की शाखाएं मनहर
ला लाकर उनको देते थे, उनके
कहे अनुसार लक्ष्मण
जलराशि, बालुका से सज्जित, यमुना
का जो सुंदर तट था
अति प्रसन्न होती थीं सीता,
सुन कलरव हंस, सारस का
एक कोस की कर यात्रा, हिंसक
पशुओं का वध करके
लगे विचरने तब वे तीनों,
यमुना तटवर्ती उस वन में
गुंजित था मोरों के स्वर
से, भरे हुए हाथी, वानर थे
रात्रि निवास किया वहीं पर,
समतलतट पर आ पहुंचे
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचपनवाँ
सर्ग पूरा हुआ
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