Wednesday, January 4, 2017

श्रीराम का लक्ष्मण को अयोध्या लौटाने के लिए प्रयत्न करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रिपंचाश: सर्गः
श्रीराम का राजा को उपालम्भ देते हुए कैकेयी से कौसल्या आदि के अनिष्ट की आशंका बताकर लक्ष्मण को अयोध्या लौटने के लिए प्रयत्न करना, लक्ष्मण का श्रीराम के बिना अपना जीवन असम्भव बताकर वहाँ जाने से इंकार करना, फिर श्रीराम का उन्हें वनवास की अनुमति देना

सुखदाताओं में जो श्रेष्ठ थे, पहुँचे राम वृक्ष के नीचे
संध्याकालीन करके पूजा, लक्ष्मण से ये वचन कहे

नहीं सुमन्त्र हैं साथ हमारे, रात्रि प्रथम जनपद के बाहर
उत्कंठित किंचित न होना, नगर की सुख-सुविधा न पाकर

तज आलस्य आज से हमको, रात्रि में जागना होगा
योगक्षेम सीता का क्योंकि, हमको ही पालना होगा

तिनकों, पत्तों की शय्या पर, संग्रह किया जिन्हें हमने ही
बिछा के भू पर सो लेंगे हम, फिर लक्ष्मण से यह बात कही

दुःख से सोये होंगे राजा, किन्तु सुखी होगी कैकेयी
महाराज को हत न कर दे, भरत को आया देख कहीं

कोई नहीं है रक्षक उनका, वृद्ध और अनाथ हुए हैं
मन में ही कामना रह गयी, रक्षा हित क्या कर सकते हैं

मति-भ्रान्ति लख राजा की, निज संकट को देख मुझे
गौरव काम का ही लगता है, बढ़कर अर्थ और धर्म से

जैसे त्यागा पिता ने मुझको, ऐसे कोई जन न करेंगे
सुखी भरत हैं, रह अकेले, कोसल देश के राजा होंगे

अर्थ, धर्म का परित्याग कर, आश्रय लेता जो काम का
आपत्ति में पड़ जाता वह, हाल हुआ जैसे राजा का

राज के प्राण हरने व, देशनिकाला मुझको देने
राज्य दिलाने निज पुत्र को, थी कैकेयी राजभवन में

दे सकती है कष्ट अति वह, कौसल्या और सुमित्रा को
सौभाग्य के मद से मोहित, नहीं ज्ञान है कोई उसको

हमलोगों के कारण ही तो, कष्ट में होगी माँ सुमित्रा
प्रातःकाल ही तुम यहीं से, वापस जाओ नगर अयोध्या

संग सीता के मैं अकेले, जाऊँगा दंडक वन को
बन आश्रय कौसल्या माँ के, तुम जाकर सहायक हो

खोटे कर्म हैं कैकेयी के, अन्याय भी कर वह सकती
द्वेष के कारण उन दोनों से, उन्हें जहर भी दे सकती  

निश्चय ही किसी पूर्वजन्म में, माँ व पुत्रों के वियोग में
बनी थीं कारण मेरी माता, जिसका फल पाया उन्होंने

चिरकाल तक करके पोषण, स्वयं दुःख सह बड़ा किया
सुख देने की जब घड़ी थी, मैंने स्वयं को विलग किया

न मुझसा हो पुत्र किसी का, जो माता के दुःख का कारण
 प्रेम से पाली हुई सारिका, करती प्रेम उन्हें मुझसे बढ़

उसके मुख से सदा यह सुनती, शत्रु पैर को काट, हे तोते !
मन्दभागिनी सी होकर वह, शोक सिवा क्या पाती मुझसे

यदि कुपित मैं हो जाऊं, निष्कंटक राज्य कर सकता
एक अकेला निज बाण से, सारी भूमि हर सकता

नहीं काम आता पराक्रम, उसे, साधता जो परलोक  
मैं अधर्म के भय से ही, नहीं कराता राज्यभिषेक  

इस जैसी कई बातें कहकर, करुणाजनक किया विलाप
अश्रु बह रहे थे नयनों से, बैठ गये फिर वह उस रात

ज्वालारहित अग्नि हो जैसे, वेगशून्य समुद्र समान
आश्वासन दे लक्ष्मण बोले, हे भ्राता श्रेष्ठ श्रीराम !

आप निकल आए हैं जिससे, निस्तेज वह पुरी हो गयी
चन्द्रहीन रात्रि समान ही, हुई अयोध्या अब सूनी सी

उचित नहीं कदापि आपका, संतप्त व व्याकुल होना
हमें खेद में आप डालते, नहीं बिना आपके रहना

दो क्षण भी नहीं रह सकता, जैसे जल बिन मीन न जीता
स्वर्गलोक भी नहीं चाहिए, नहीं सम्भव रह सकतीं सीता

माता-पिता, भाई, कोई भी, नहीं प्रिय मुझे बिना आपके
स्वीकारा वनवास धर्म तब, अनुमति दी भाई को राम ने

लक्ष्मण कृत सुंदर शय्या थी, बरगद के वृक्ष के नीचे
लिया आश्रय तब उसी का, गये राम संग सीता सोने

उसके बाद कभी उस वन में, महाबली वीर वे दोनों
सिंह की भांति विचरण करते, प्राप्त हुए न उद्वेग को

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ.


3 comments:

  1. दिनांक 05/01/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद... https://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
    आप भी इस प्रस्तुति में....
    सादर आमंत्रित हैं...

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  2. Replies
    1. स्वागत व बहुत बहुत आभार !

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