श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः
नगरवासिनी स्त्रियों का विलाप करना
थे विषाद ग्रस्त अति पीड़ित, प्राणत्याग की इच्छा रखते
साथ राम के जाकर भी जो, बिना लिवाये ही लौटे थे
उनकी दशा अति हीन थी, मानो प्राण न शेष रहे
पत्नी व पुत्रों से मिलकर, अश्रु बहाते वे बैठे थे
नहीं चिह्न हर्ष का कोई, मन भी उनका निरानंद था
वैश्यों ने दुकानें न खोलीं, बाजार भी खाली ही था
चूल्हे नहीं जले घरों में, उस दिन नहीं बनी रसोई
होता नहीं था हर्ष किसी को, खोई वस्तु पाकर भी
माता हर्षित नहीं हुई थी, प्रथम बार माँ बनने पर
स्वागत नहीं किया किसी ने, धन-राशि विपुल पाकर
बिना राम देख पतियों को, रोने लगी स्त्रियाँ घर-घर
लगीं कोसने कटु वाणी से, दुःख से वे आतुर होकर
ज्यों अंकुशों से हाथी को, पीड़ित करें महावत वैसे
वचन बोलती थीं कठोर, नहीं प्रयोजन अब सुखों से
सत्पुरुष हैं एक लक्ष्मण, सेवा हित जो साथ गये
जिनमें राम ने किया स्नान, पुण्यशाली नद, सरवर वे
सुंदर वृक्षों वाले वन वे, नदियाँ जिनके बड़े कछार
शिखरों से सम्पन्न पर्वत, शोभित होंगे पाकर राम
प्रिय अतिथि की भांति देख, वन, पर्वत उन्हें पूजेंगे
पुष्प, मंजरी धारण करके, भ्रमरों संग उन्हें मोहेंगे
असमय में भी वे वन पर्वत, फल और फूल भेंट करेंगे
विविध विचित्र झरनों द्वारा, निर्मल जल के स्रोत बहेंगे
लहलहाते वृक्ष शिखर पर, मनोरंजन करेंगे उनका
जहाँ राम हैं भय न कोई, न ही कभी पराभव होता
जब तक दूर निकल न जाते, इससे पहले उन्हें खोज लें
छाया उनकी सुखद अति है, रक्षक, गति आश्रय हैं वे
तुम रघुनाथ की सेवा करना, सीताजी की सेवा हम
इस प्रकार बोलीं स्त्रियाँ, पतियों से होकर व्याकुल
सिद्ध करेंगे योगक्षेम वे, सीता पालन करें हमारा
रहित प्रीति व प्रतीति से, भाता नहीं निवास यहाँ का
कैकेयी का शासन होगा, धर्म की न मर्यादा होगी
धन-पुत्रों से क्या प्रयोजन, नहीं कामना जीने की
जिसने राज्य-वैभव के हित, पुत्र-पति का त्याग किया
किसका त्याग नहीं करेगी, कौन भला सुख पा सकता
जब तक जीवित है कैकेयी, कैसे हम सब यहाँ रहेंगे
हुआ अनाथ राज्य यह सारा, महाराज भी कहाँ बचेंगे
पुण्य समाप्त हुए हमारे, यही समझ लो तुम यह अब
दुःख ही अति भोगना होगा, नहीं यहाँ सुरक्षित हम
या करें अनुसरण राम का, अथवा दूर चले जाएँ
बंधे हुए पशु की भांति, अब हम स्वयं को पायें
श्रीराम हैं अति बलशाली, सत्य वचन बोलने वाले
अति प्रिय है दर्शन उनका, पृथ्वी की शोभा बढ़ाते
रोने लगीं स्त्रियाँ यह कह, मानो मृत्यु के भय से
धीरे-धीरे रात्रि आ गयी, सूर्यदेव अस्ताचल गये
अग्निहोत्र भी नहीं हुआ, स्वाध्याय न कथावार्ता
अंधकार से पुती थी नगरी, आश्रय रहित हुई अयोध्या
चहल-पहल नहीं थी कोई, हँसी-ख़ुशी भी छिन गयी थी
तारों बिना ज्यों हो आकाश, श्रीहीन जान पड़ती थी
ऐसे रोती थीं राम हित, नगरवासिनी वे स्त्रियाँ
सगे पुत्र या भाई को, मिला हो जैसे देशनिकाला
पुत्रों से बढ़कर थे राम, रोते-रोते हुईं अचेत वे
सुनसान लगती थी नगरी, उत्सव बंद हुए थे सारे
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अड़तालीसवाँ
सर्ग पूरा हुआ.
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